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________________ ९२ पदार्थ विज्ञान नही कि वह तेरे अनुभवमे आ जायेगा, और यदि ऐसा हो गया तो तू कृतकृत्य हो जायेगा, प्रभु बन जायेगा । उसो रूपको ध्यानमे रखकर ज्ञानीजन आत्मा तथा परमात्माको एक बताया करते हैं, जीव तथा ब्रह्मको एक कहा करते है । जब ज्ञानीजन ऐसा कहते हैं कि वह परमात्मा घट-घटमे बसता है, अरे ! वह तुझमे भी निवास करता है, तब उनका लक्ष्य उस चेतनको ओर होता है, जिसका परिचय कि पहले दिया जा चुका है। परन्तु वही चेतन जब बुद्धि, चित्त, अहकार तथा मनके अर्थात् अन्तःकरणके तथा शरीरके बन्धनो मे पडकर सकुचित हो जाता है, जब वह शरीरोका स्वामी बन जाता है, तब वह जीव कहलाने लगता है । क्योकि शरीरादिका स्वामी बन जानेपर उसे जानने के लिए पाँच इन्द्रियोका आश्रय लेना पडता है, मन, वचन तथा काय बलका आश्रय लेना पडता है, श्वासोच्छ्वासका आश्रय लेना पड़ता है और आयुके पाशमे बँधकर रहना होता है । पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास तथा आयु ये दस प्राण कहलाते हैं । क्योकि शरीरधारी जीव इन दस प्राणोके आश्रयसे जीते है इसलिए जीव कहलाते हैं । २ प्रन्तकरण तथा इन्द्रियोका संक्षिप्त स्वरूप जीव जिस पिण्डमे रहता है, उसे शरीर कहते हैं । जीवके जानने, बोलने तथा मनन करने आदिके साधनोको इन्द्रिय कहते है । यह बात पहले ही बता दी गयी है कि वास्तवमे जाननेवाली आँख आदि इन्द्रियाँ नही है परन्तु वे केवल जाननेको साधन मात्र हैं, जैसे कि आँखके लिए चश्मा । ये इन्द्रियाँ पाँच हे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण । स्पर्शन कहते हैं स्पर्श करके या छूकर जाननेके साधनको । जीवका सारा शरीर हाथ, पाँव, पेट,
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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