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________________ नियमसार २५५ जहाँ न इंद्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न तृषा है और न क्षुधा है वहीं निर्वाण होता है।।१८०।। ण वि कम्मं णोकम्मं, णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि। णवि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८१।। जहाँ न कर्म है, न नोकर्म है, न चिंता है, न आर्त-रौद्र ध्यान है और न धर्म्य शुक्ल ध्यान हैं, वहीं निर्वाण होता है।।१८१।। सिद्ध भगवान्का स्वरूप विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरयं । केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सपदेसत्तं ।।१८२।। उन सिद्ध भगवान्के केवलज्ञान है, केवलसुख है, केवलवीर्य है, केवलदर्शन है, अमूर्तिकपना है, अस्तित्व है तथा प्रदेशोंसे सहितपना है।।१८२।। निर्वाण और सिद्धमें अभेद णिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा। कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जंत्तं ।।१८३।। निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण हैं ऐसा कहा गया है। कर्मसे विमुक्त आत्मा लोकाग्रपर्यंत जाता है। ।१८३।। ___ कर्मविमुक्त आत्मा लोकाग्रपर्यंत ही क्यों जाता है? जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मत्थिकायभावे, तत्तो परदो ण गच्छंति।।१८४।। जीव और पुद्गलोंका गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक होता है। लोकाग्रके आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे कर्ममुक्त आत्माएँ नहीं जाती हैं।।१८४ ।। ग्रंथका समारोप णियमं णियमस्स फलं, णिद्दिटुं पवयणस्स भत्तीए। पुव्वावरविरोधो जदि, अवणीय पूरयंतु समयण्हा।।१८५।। इस ग्रंथमें प्रवचनकी भक्तिसे नियम और नियमका फल दिखलाया गया है। इसमें यदि पूर्वापर विरोध हो तो आगमके ज्ञाता पुरुष उसे दूर कर पूर्ति करें।।१८५।। ईसाभावेण पुणो, केई जिंदंति सुंदरं मग्गं। तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।।१८६।।
SR No.009556
Book TitleNiyam Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size7 MB
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