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________________ कुदकुद-भारता इसलिए उसके बंध नहीं होता।।१७४।। ठाणणिसेज्जविहारा, ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। तम्हा ण होइ बंधो, साकट्ठे मोहणीयस्स।।१७५।। केवलीके खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छापूर्वक नहीं होते हैं, इसलिए उन्हें तन्निमित्तक बंध नहीं होता। बंध उसके होता है जो मोहके उदयसे इंद्रियजन्य विषयोंके सहित होता है।।१७५ ।। कर्मक्षयसे मोक्ष प्राप्त होता है आउस्स खएण पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीणं। पच्छा पावइ सिग्धं, लोयग्गं समयमेत्तेण।।१७६।। आयुके क्षयसे केवलीके समस्त प्रकृतियोंका क्षय हो जाता है, पश्चात् वे समयमात्रमें शीघ्र ही लोकानको प्राप्त कर लेते हैं।।१७६।। ___ कारण परमतत्त्वका स्वरूप जाइजरमरणरहियं, परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं, अक्खयमविणासमच्छेयं ।।१७७।। वह कारणपरमतत्त्व जन्म जरा और मरणसे रहित है, उत्कृष्ट है, आठ कर्मोंसे वर्जित है, शुद्ध है, ज्ञानादिक चार गुणरूप स्वभावसे सहित है, अक्षय है, अविनाशी है और अच्छेद्य -- छेदन करनेके अयोग्य है।।१७७।। अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावविणिमुक्कं। पुणरागमणविरहियं, णिच्चं अचलं अणालंबं ।।१७८ ।। वह कारणपरमतत्त्व अव्याबाध, अनिंद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापसे निर्मुक्त, पुनरागमनसे रहित, नित्य, अचल और अनालंब -- परके आलंबनसे रहित है।।१७८ ।। निर्वाण कहाँ होता है? णवि दुःखं णवि सुक्खं, णवि पीडा व विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१७९।। जहाँ न दुःख है, न सांसारिक सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है और न जन्म है, वहीं निर्वाण होता है।।१७९।। ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य। णय तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८०।।
SR No.009556
Book TitleNiyam Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size7 MB
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