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________________ कर्म सिद्धान्त . १५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय है। शरीर पर आने वाली बाधाओं के साथ तन्मय होकर हाय-हाय करना उसका काम नहीं क्योंकि जड़ शरीर की बाधायें उसकी बाधायें नहीं कही जा सकतीं । शरीर की पीड़ाओं को महसूस करना इस बात का चिह्न है कि अभी तक उसके भावों का शरीर के साथ बन्ध बना हुआ है, भले ही वह अत्यन्त कृश क्यों न हो गया हो। ऊपर जो परीषह सहने की बात कही गई है, उसका वास्तविक अर्थ यही है कि साम्यरस में मग्न रहने के कारण पीड़ा का भान नहीं होता। विष की चूंट की भाँति उसे गला घोंटकर चुपके चुपके सहते रहना और उपयोग का उसी में अटके रहना, यह सच्चा तप नहीं है। परमाणु मात्र भी भावबन्ध है तो मुक्ति सम्भव नहीं। इसलिये साधक को इतना आन्तरिक बल प्रगट करना चाहिये कि लोक की बड़े से बड़ी भी बाधा उसकी समता को किंचिन्मात्र भी भंग करने के लिए समर्थ न हो सके । वह हर समय ज्ञाता दृष्टा ही बना रह सके, शुद्ध परिणामों में ही अवस्थित रह सके। - इस प्रकार आन्तरिक बल को बढ़ाने के लिये आवश्यक है कि शद्ध परिणाम या समता के साथ-साथ पीड़ायें सहने का भी अभ्यास करे । पीड़ा सहने का यहाँ वही अर्थ समझें जो कि ऊपर बताया गया है, क्योंकि साधना दुःख सुख में सम रहने की करनी है, पीड़ा सहने की नहीं। वह साधना दो प्रकार की है-अल्प शक्ति वालों के लिए और अधिक शक्ति-वालों के लिए। अल्प शक्ति वाले अनुकूल वातावरण में रहकर समता का अभ्यास करते हैं, अर्थात् तप नहीं करते । इसीलिये उनकी साधना पूर्णता को स्पर्श नहीं कर पाती । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी साधना विफल है। साधना के फलस्वरूप वे इसी भव में या अगले भवों में अधिक शक्तिवालों की श्रेणी में मिल जाते हैं। अधिक शक्तिवाला साधक प्राय: प्रतिकूल और कभी-कभी अत्यन्त भयानक वातावरण में भी रहकर समता का अभ्यास करता है। जब वह इतना समर्थ हो जाता है कि लोक की बड़े से बड़ी शारीरिक पीड़ा भी उसकी समता को चलायमान करने के लिए किंचित् भी समर्थ न हो सके तब उसकी समता पूर्ण हई कही जाती है, अन्यथा नहीं। इस पर से जाना जाता है कि उसके कर्म निर्जीर्ण हो चुके हैं, जिसके कारण अब उसे व्युत्थान अथवा च्युति का भय नहीं है। इस प्रयोजन के लिये की गई उक्त भयानक साधना का नाम तपश्चरण है। ५. कर्म-पुरुषार्थ समन्वय–पीड़ाओं में अपने साम्यस्वभाव से चलित होने की दुर्बलता वास्तव में कर्म कृत थी, जो कड़े तपश्चरणों के द्वारा भग्न कर दी गई । इसका अर्थ यह हुआ कि तन्निमित्तक कर्मों की सत्ता का उन्मूलन कर दिया गया। इस पर से तपश्चरण के प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ दिन की, कुछ महीनों की, या कुछ वर्षों मात्र की साधना के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों की सत्ता का नाश तभी सम्भव
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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