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________________ १४. उपशम आदि ६९ कर्म सिद्धान्त ४. क्षय - जिस प्रकार थोड़ी देर तक चुन्धियाकर आँख पूरी तरह खुलने के लिय समर्थ हो जाती है, उसी प्रकार कुछ काल पर्यन्त क्षयोपशम से गिर- गिरकर चढ़ते रहने के उपरान्त साधक अन्त में जागृत अवस्था को हस्तगत करने के लिये समर्थ हो जाता है । क्षयोपशम से उदय और उदय से क्षयोपशम इस प्रकार कुछ काल पर्यन्त उन्मज्जन निमज्जन करते रहने के पश्चात् कर्म - प्रकृति की सत्ता समूल नष्ट हो जाती है, जिससे कि दग्ध बीज की भाँति उसका पुनः उदय में आना सम्भव न हो सके। इसे ही कर्म प्रकृति का 'क्षय' होना कहते हैं । I उपशम की भाँति मोहनीय के क्षय से प्राप्त समता तथा शमता भी पूर्ण होती है । अन्तर केवल उनकी स्थिति में है । उपशम से प्राप्त वे केवल एक क्षण को अपना मुख दिखाकर लुप्त हो जाती हैं, जब कि क्षय से प्राप्त वे सदा के लिये अवस्थित रहती । दूसरी विशेषता यह है कि उपशम विधान केवल सम्यक्त्व तथा चारित्र के क्षेत्र में ही लागू होता था, परन्तु 'क्षय' सम्यक्त्व तथा चारित्र के साथ-साथ ज्ञान दर्शन दान लाभ आदि सभी शक्तियों के क्षेत्र में लागू होता है । जिस प्रकार दर्शन - मोहनीय तथा चारित्र - मोहनीय प्रकृतियों के क्षय से तत्त्व दृष्टि-युक्त समता और चित्त-विश्रान्ति युक्त शमता सदा के लिये पूर्ण हो जाती हैं उसी प्रकार ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय प्रकृतियों के क्षय से ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग आदि शक्तियाँ भी सदा के लिये पूर्ण हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि उपशम विधान में जिस प्रकार जल निथारने की भाँति कर्म-प्रकृति को थोड़ी देर के लिये सुला दिया जाता था उस प्रकार यहाँ नहीं होता । भभके में चढ़ाकर भाप बनाने के द्वारा जिस प्रकार जल को शुद्ध (Refine ) किया जाता है उसी प्रकार यहाँ तप की भट्ठी पर चढ़ाकर कर्म-मल को सर्वथा भस्म कर दिया जाता है । इसलिये उपशम-विधान में जिस प्रकार बर्तन की तली में बैठे मैल के पुनः उठकर जल को मलिन बना देने की सम्भावना बनी रहती थी, उस प्रकार यहाँ नहीं रहती । उपशम-विधान में भले ही वर्तमान में कर्म निश्चेष्ट कर दिया गया हो, परन्तु वह जीवित है। जबकि यहाँ कर्म सर्वथा नष्ट कर दिया गया है, इसलिये उसके सर उभारने का भय यहाँ कैसे हो सकता है । ५. पंच भाव --- जिस गुण की विरोधी प्रकृति का उदय उपशम आदि होता है, जीव का वह गुण ही ढंका जाता है या प्रकट होता है, दूसरे गुण में उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। हो सकता है कि किसी एक प्रकृति का उदय हो और अन्य किसी का उपशम या क्षय आदि हो । उसके फलस्वरूप जीव के कुछ गुण तो ढके रहते हैं और कुछ हीनाधिक रूप में प्रकट रहते हैं । सर्व संसारी जीवों को जितना ज्ञान प्रकट है वह ज्ञानावरणीय प्रकृति के क्षयोपशम के कारण है, और जितना ज्ञान ढका हुआ है वह उसी के उदय के कारण है। आत्मदर्शन का अथवा समता शमता का सर्वथा अभाव मोहनीय के उदय से है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना ।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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