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________________ कर्म सिद्धान्त ६० १३. संक्रमण आदि परस्पर में संक्रमण नहीं होता। दर्शनमोह की मिथ्यात्व आदि तीन उत्तर प्रकृतियों का परस्पर में संक्रमण होना सम्भव है अथवा चारित्र - मोहनीय की क्रोधादि उत्तर प्रकृतियों का भी । परन्तु यह सम्भव नहीं कि दर्शन- मोहनीय बदल कर चारित्र - मोहनीय बन जाये और चारित्र - मोहनीय बदलकर दर्शन - मोहनीय हो जाये। तीसरी विशेषता आयु कर्म की है। चारों आयु यद्यपि उत्तर प्रकृतियाँ हैं पर उनमें भी परस्पर संक्रमण सम्भव नहीं, क्योंकि उनमें जाति भेद पाया जाता है । अर्थात् एक बार बाँधी हुई नरक आदि. भवकी आयु बदलकर मनुष्यादि भववाली बन जाये ऐसा सम्भव नहीं । हाँ जाति वही रहते हुये उसकी स्थिति तथा अनुभाग अवश्य बढ़ घट सकते हैं । संक्रमण सम्बन्धी इस सिद्धान्त की परीक्षा हो जाती है उन व्यक्तियों पर से, जिनकी प्रकृति पापी से धार्मात्मा और धर्मात्मा से पापी बनती हुई स्पष्ट देखी जाती है । न्याय भी है कि जैसा कोई कार्य करता है, वैसा ही करने की आदत उसे पड़ जाती है और पुरानी आदत छूट जाती है । अत्यन्त खिलाडी बच्चे कदाचित् अधिक पढ़व्वे खेलकूद से विमुख हो जाते हैं । यही प्रकृति का परिवर्तन या संक्रमण है । समझ लीजिये कि पहली आदत में निमित्त होने वाली जो कर्म-प्रकृति थी वह अवश्य ही संक्रमण करके नवीन प्रकृति रूप से उदय में आ रही है। अन्यथा आदत का बदलना असम्भव था, क्योंकि संसारी जीव की कोई भी प्रवृत्ति कर्मोदय के बिना नहीं होती । यद्यपि कर्म का या कार्मण शरीर का साक्षात्कार हम नहीं कर सकते परन्तु जीव की प्रवृत्तियों पर से, उसमें होने वाले फेर फार का अनुमान अवश्य कर सकते हैं । 1 ४. अपकर्षण — स्थिति या अनुभाग के घटने का नाम अपकर्षण है। उसका कुछ काल्पनिक चित्रण खेंचता हूँ । स्थिति की निषेक रचनावाली कल्पना को याद कीजिये । एक एक समय पर एक एक समय-प्रबद्ध का एक एक निषेक बैठा हुआ है। अनेक समय प्रबद्धों के अनेकों निषेक एक समय पर स्थित हैं, इस प्रतीक्षा में कि कब उससे पहला समय बीते और उन्हें अपना प्रभाव दिखाने का अवसार प्राप्त हो अर्थात् उदय में आयें। एक समय पर स्थित कुल निषेकों का द्रव्य एक समय-प्रबद्ध प्रमाण ह । जीव के शुभ परिणामों की विचित्रता से ऊपर वाले समय पर स्थित कुछ निषेक वहाँ से उठकर अपने से नीचे वाले कुछ निषेकों के साथ मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ कुल स्थिति १० समयों की है। प्रथम समय वाला समय-प्रबद्ध उदय में है, और २ १० तक वाले उदय की प्रतीक्षा में हैं अर्थात् सत्ता में स्थित हैं । उदयागत यह समय प्रबद्ध शुभ है जिसके फलस्वरूप जीव के परिणाम कुछ शुभ हो गये हैं, ऐसा समझ लीजिये । उसके इस शुभ परिणाम के निमित्त से नं० १० वाले समय-प्रबद्ध के कुछ निषेक अपने स्थान से च्युत होकर विभक्त हो गए। इन निषेकों का कुछ भाग तो नं० २ वाले समय पर जा बैठा, कुछ नं० ३ पर, कुछ कुछ नं० ४ पर और कुछ नं० ५ पर । इसी प्रकार न० ९
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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