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________________ ११. कर्म-बन्ध १. पुनरावृत्ति; २. द्रव्यबन्ध व भावबन्ध; ३. कथन-पद्धति ४. बन्धके निमित्त; ५. स्थिति-अनुभाग-प्राधान्य; ६. प्रदेशास्त्रव; ७. अनुभाग उद्भव; ८. स्थिति उद्भव; ९. आयु कर्म । १. पनरावृत्ति-पहले के पाँच अधिकारों में जीव व कर्म-बन्ध के पारस्परिक निमित्त-नैमित्तिक भाव तथा वस्तु-स्वभाव का परिचय दिया गया। अगले पाँच अधिकारो में द्रव्य-कर्म के अन्तर्गत प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश रूप चार विकल्पों का विवेचन किया गया। साथ ही स्थिति में पड़ने वाली निषेक रचना का, इन निषेकों के क्रम पूर्वक उदय में आने का तथा सत्ता में स्थित रहने का संक्षिप्त विचार किया गया। अब बन्ध उदय सत्त्व प्रकरण की विशेष विचारणा के अर्थ पृथक् से ये दो अधिकार प्रारम्भ किये जाते हैं। अनेक जड़ परमाणुओं का या वर्गणाओं का परस्पर में अथवा जीव के प्रदेशों के साथ जो विशेष प्रकार का संश्लेष सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । इस बन्ध में जड़ तथा चेतन दोनों ही पदार्थ अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर किन्हीं विचित्र विजातीय भाव-विकारों को धारण कर लेते हैं। कर्म-बन्ध सम्बन्धी अन्य अनेकों स्वाभाविक विचित्रताओं का परिचय अधिकार नं० ५ तथा ६ में दिया जा चुका है। जीव पुद्गल का पारस्परिक निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दर्शाते हुए अधिकार नं०७ में यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवों की योग तथा उपयोगात्मक क्रिया का अथवा भावों का निमित्त पाकर कर्म वर्गणायें उसके प्रदेशों के साथ, द्रव्य कर्म के रूप में बन्ध जाती हैं। पीछे यथा समय जब उस द्रव्य कर्म का उदय होता है तब उस कर्म की प्रकृति तथा अनुभाग के अनुसार तीव्र या मन्द रागादि भाव-कर्म अथवा विकार उत्पन्न होते हैं। यह सब कुछ स्वत: स्वभाव से होता रहता है । अब उस बन्ध का क्रम क्या है, यह बात दर्शानी इष्ट है। २. द्रव्य-बन्ध व भाव-बन्ध–बन्ध दो प्रकार का है—द्रव्य-बन्ध तथा भाव-बन्ध । कार्मण वर्गणाओं का कार्मण वर्गणाओं के साथ तथा जीव प्रदेशों के साथ जो बन्ध होता है उसे द्रव्य-बन्ध कहते हैं। इसी प्रकार जीव के भावों का या उसके उपयोग का बाह्य पदार्थों के साथ जो बन्ध होता है वह भाव-बन्ध कहलाता है । इष्ट अनिष्ट रूप या ग्राह्य त्याज्य रूप द्वन्द्वों से युक्त चित्त का इन पदार्थों के प्रति जो स्वामित्व कर्तृत्व भोक्तृत्व भाव होता है वह ही इसका स्वरूप है। पुत्र, मित्र, कलत्र आदि चेतन पदार्थों के साथ अथवा धन, धान्य, वस्त्र, गृह, वाहन आदि अचेतन पदार्थों के साथ चित्त की यह ग्रन्थि इतनी दृढ़ होती है कि इन पदार्थों में हानि, वृद्धि, क्षति,
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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