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________________ कर्म सिद्धान्त ९. मोहनीय प्रकृति आयु के अन्तिम क्षण में कुछ काल शेष रहने पर वह उपदेशादि की सर्व बाह्य क्रियाओं को छोड़कर श्वास तक का निरोध कर लेता है। पूर्ण निश्चल योग धारण कर लेता है, जिसके प्रभाव से चारों अघातिया कर्म भी भस्मीभूत हो जाते हैं। इस प्रकार आठों कर्मों के संघात-रूप कार्मण-शरीर का समूल नाश हो जाता है । कारण के अभाव में नये शरीर-रूप कार्य का निर्माण फिर कैसे हो। अब उसके योग तथा उपयोग दोनों स्थिर तथा शुद्ध हो जाते हैं। अब वह अपने शुद्ध अमूर्तिक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, और फिर कभी भी मूर्तिक पुद्गल के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होता। संसार-विच्छेद की सिद्धि हो जाने से अब वह सिद्ध कहलाता है। अन्यत्र इसे ही विदेह-मुक्त कहा जाता है। परम शुद्ध दशा को प्राप्त होने से अर्हन्त तथा सिद्ध दोनों ही यद्यपि परम+आत्मा हैं, तदपि कल अर्थात् शरीर से युक्त होने के कारण जीवन्मुक्त अर्हन्त सकल-परमात्मा हैं और शरीर से रहित होने के कारण विदेह-मुक्त सिद्ध निकल परमात्मा हैं। ध्यान रहे कि यह सारा कथन जीव के भाव तथा कर्म इन दोनों के निमित्त-नैमित्तिकपने को दृष्टि में रखकर किया गया है। ६. २८ प्रकृतियाँ इस प्रकार संसार का मूल कारण मोहनीय कर्म ही सिद्ध है। उसके दो भेद हैं—दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय । दर्शन-मोहनीय श्रद्धा की घातक है और चारित्र-मोहनीय वीतराग चारित्र की। चारित्र-मोहनीय के पच्चीस भेद ऊपर कह दिये गये-अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद । दर्शन-मोहनीय तीन भेदवाला है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति । मिथ्यात्व प्रकृति पूर्ण अन्धकार करती है, अर्थात् स्वरूप का किंचित् भी भान होने नहीं देती। सम्यग्मिथ्यात्व दही गुड़ के मिश्रित स्वादवत् अल्प अन्धकार वाली है अर्थात् सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के मिश्रित एक विजातीय भाव को उत्पन्न करती है, जिसे न सम्यक्त्व कह सकते हैं और न मिथ्यात्व । सम्यक् प्रकृति किंचित् अन्धकार वाली है। इसके सद्भाव में यद्यपि सम्यक्त्व घाता नहीं जाता, पर धुन्धला अवश्य पड़ जाता है, जैसे क्षीण मात्र सी सफेद बदली से सूर्य ढक जाता है पर प्रकाश नहीं। -दर्शन-मोहनीय की तीन और चारित्र मोहनीय की २५, ये सब मिलकर कुल २८ उत्तर प्रकृति मोहनीय-कर्मकी हैं। प्रधान कर्म होने के कारण इसका विशेष विस्तार किया है। इसके निमित्त से उत्पन्न होने वाले काषायिक भावों की ही 'भाव कर्म' संज्ञा है, जो नवीन बन्धका कारण है। इसका क्षय करने में ही मोक्ष की यथार्थ साधना निहित है।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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