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________________ कर्म सिद्धान्त ५. बन्ध परिचय इस पर से यह ग्रहण न कर लेना कि बन्धको प्राप्त वे दोनों पदार्थ सर्वथा अपने स्वभाव को तिलाञ्जली दे बैठे हैं, क्योंकि इसका निराकरण पहले ही अगुरुलघु गुण के प्रकरण में कर दिया गया है । बन्ध जाने पर भी इनकी स्वतन्त्रता अवश्य बनी रहती है परन्तु वह अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाती है। स्वत: या किसी विशेष राासायनिक प्रयोग द्वारा पृथक् हो जाने पर उनका वह स्वभाव पुन: व्यक्त या आविर्भूत हो जाता है। जैसे कि प्रयोग विशेष के द्वारा जल को फाड़ देने पर पुन: ऑक्सीजन हाइड्रोजन बन जाते हैं, अथवा मिश्रित स्वर्ण को शोधने पर सोना तथा ताम्बा अपने अपने शुद्ध रूप में प्रकट हो जाते हैं । बन्ध अवस्था में ही उनका यह विजातीय रूप रहता है, पृथक् हो जाने पर पुन: अपने स्वभाव में आ जाते हैं । इसी प्रकार परमाणु भी स्कन्ध में बंधकर अपने स्वभाव से च्यूत हो जाता है और शरीर के साथ बंधकर जीव भी। पृथक्-पृथक् हो जाने पर दोनों अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित हो जाते हैं। संश्लेष रूप इस सम्बन्ध विशेष में केवल क्षेत्रात्मक प्रदेश बन्ध ही नहीं होता, द्रव्य क्षेत्र काल तथा भाव इन चारों का ही बन्ध हो जाता है । पृथक् पृथकृ द्रव्य सदा एक होता है, परन्तु बद्ध-द्रव्य एकाधिक द्रव्यों का पिण्ड । शुद्ध द्रव्य स्व-प्रदेश प्रमाण ही होता है। अर्थात् पुद्गल एक प्रदेशी और जीव लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी, परन्तु बद्ध-स्कन्ध अनेक प्रदेशी और बद्ध-जीव शरीर-प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होता है। शुद्ध द्रव्य की शुद्ध पर्याय केवल एक समय स्थायी होती है, परन्तु बद्ध-जड़ द्रव्यों की तथा बद्ध चेतन द्रव्यों की अशुद्ध द्रव्य पर्यायें अथवा भाव-पर्यायें नियम से असंख्यात समय स्थायी या अधिक काल स्थायी होती हैं। शुद्ध द्रव्यों का भाव अपने-अपने शुद्ध गुणों रूप रहता है, परन्तु बद्ध द्रव्यों का भाव अनेक गुणों के मिश्रण से विकृत हो जाता है। शुद्ध अवस्था में जड़ या चेतन कोई भी पदार्थ इन्द्रिय-गोचर नहीं होता परन्तु बद्ध अवस्था में जड़-स्कन्ध तथा शरीरधारी जीव इन्द्रिय-ग्राह्य हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि द्रव्य के स्व चतुष्टय ही बदलकर विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। इस प्रकार संश्लेष बन्ध की विचित्रता है। यह ठीक है कि बन्ध को प्राप्त वस्तुयें एक क्षेत्रावगाही हो जाती हैं, परन्तु सर्व ही एक क्षेत्रावगाही वस्तुएं बन्ध को प्राप्त हो जायें यह आवश्यक नहीं है जैसे कि एक प्रदेश पर स्थित अनन्त परमाणु परस्पर बन्धको प्राप्त न होकर पृथक्-पृथक रहते हैं। अनन्तानन्त परमाणु, अनन्तों सूक्ष्म वर्गणायें, अनन्तों सूक्ष्म शरीरधारी जीव तथा एक स्थूल शरीरधारी जीव; लोकाकाश के एक प्रदेश या क्षेत्र पर इतनी बड़ी समष्टि का अवस्थान पाया जाता है। ये सभी एक दूसरे में अवगाह पाकर निर्बाध रूप से स्थित रहते हैं । इन सबमें परस्पर एक क्षेत्रावगाह तो है परन्तु संश्लेष सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों का परिमणमन एक दूसरे से निरपेक्ष स्वतंत्र रीति से. चलता रहता है । बन्ध में ऐसा होने नहीं पाता क्योंकि बन्ध को प्राप्त सभी परमाणुओं . का तथा जीव का परिणमन एक दूसरे की अपेक्षा रखकर होता है, और यही उसका
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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