SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० कर्म सिद्धान्त ४ जीव परिचय वास्तव में जीव-शक्ति के अभाव में अण्डे का या शरीर का निर्माण प्रारम्भ हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके बिना केवल जड़ वर्गणाओं में स्वतन्त्र रूप से वैसा करने की शक्ति का अभाव है । व्यक्त न होना इस बात का प्रमाण नहीं कि वहाँ कुछ है ही नहीं, अन्यथा तीन महीने पश्चात् प्रकट होने वाले गर्भस्थ बालक के शरीर का पिण्ड भी निर्जीव स्वीकार करना होगा। पुद्गल-बन्ध की भाँति जीव प्रदेशों के साथ आहारक आदि वर्गणाओं का यह बन्ध 'जीव-पुद्गल बन्ध या उभय-बन्ध' कहलाता है। पुद्गल-स्कन्धों की भाँति शरीर में भी प्रति समय पुरानी वर्गणाओं का विच्छेद और कुछ नई वर्गणाओं का सम्मेलन बराबर चलता रहता है । इन वर्गणाओं का ग्रहण कृत्रिम तथा अकृत्रिम दोनों प्रकार से होता है। भोजन-पान से तथा लेप आदि से होने वाला ग्रहण कृत्रिम होता है और श्वास प्रश्वास से तथा रोम-कूपों द्वारा सर्वाङ्ग से प्रति समय वायु तेज आदि का जो ग्रहण स्वत: होता रहता है वह अकृत्रिम है। यह दोनों प्रकार का ग्रहण जीव का आहार कहलाता है। भोजन पान के द्वारा कवलाहार और सर्वाङ्ग के द्वारा नोकर्माहार होता है। तेल आदि की मालिश लेपाहार है, और आगे आने वाले अष्ट कर्मों का ग्रहण कर्माहार कहलाता है। लोक में यद्यपि कवलाहार प्रधान गिना जाता है परन्तु वास्तव में नोकर्माहार ही प्रधान है, क्योंकि कुछ तपस्वियों का तथा योगियों का काम इतने मात्र से चल जाता है और उन्हें पृथक् से अन्नपान ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह जानने के पश्चात ऐसी आशंका को अवकाश नहीं रहता है कि बिना आहार या जल के वे जीवित कैसे रहते होंगे। शरीर रूपेण जीव पुद्गल का यह उभय-बन्ध भी वस्तु-स्वभाव के आधीन है। यहाँ भी किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। ३. योग उपयोग-जीव की पर्याय दो प्रकार की होती हैं द्रव्यात्मक तथा भावात्मक । द्रव्यात्मक पर्याय क्रिया रूप या प्रदेश परिस्पन्दन रूप होती है, जिसका परिचय वस्तु-स्वभाव के अधिकार में पर्याय के अन्तर्गत दिया जा चुका है। जीव की इस द्रव्यात्मक पर्याय को 'योग' कहते हैं, जो प्रदेश-परिस्पन्दन के रूप में एक होते हुए भी मन, वचन तथा काय के निमित्त से प्रकट होने के कारण तीन प्रकार का कहा जाता है । भावात्मक पर्याय ज्ञान का परिणमन रूप होती है, वह परिणमन शुद्ध हो या अशुद्ध उनका कार्य शुद्ध-परिणमन श्रेयों को जानना मात्र होता है अर्थात् साक्षी भाव से ज्ञाता दृष्टा बनकर रहना मात्र होता है । इसे जानना मात्र भी कह सकते हैं । उसका अशुद्ध परिणमन रागद्वेषादि रूप अथवा अंहकार ममकार आदि के भावरूप होता है। ये दोनो प्रकार के ही परिणमन 'उपयोग' कहलाते हैं । इस प्रकार योग उसकी 'द्रव्य-पर्याय और उपयोग उसकी 'भाव-पर्याय' है। योग से प्रदेशों में बन्ध होता है और उपयोग से भावों में । इसे ही आगे द्रव्य-बन्ध तथा भाव-बन्ध में बताया जायेगा।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy