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________________ ४. जीव परिचय १. जीव, २. शरीर निर्माण क्रम, ३. योग उपयोग । १. जीव - पुद्गल की भाँति जीव भी एक सदात्मक पदार्थ है परन्तु अमूर्तीक होने के कारण इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। चेतना अर्थात् जानना या सुख दुःख आदि का अनुभव करना ही इसका प्रधान लक्षण है । सर्व लोक में ये अनन्तानन्त हैं । सत्ताभूत होने के कारण इनकी गणना में कभी हानि वृद्धि नहीं होती । द्रव्यत्व गुण के कारण यह भी नित्य परिणमन करता है, परतु अपना चेतनत्व छोड़कर जड़ नहीं बनता । मृत्यु होना वास्तव में इसका विनाश नहीं बल्कि देह-परिवर्तन मात्र है। अनेकों दार्शनिक इसे या अंगुष्ट प्रमाण अथवा सर्व व्यापक स्वीकार करते हैं, परन्तु जैन दर्शन को यह इष्ट नहीं है । छोटा-बड़ा स्वीकार करने से उसका अखण्डत्व समाप्त हो जायेगा ऐसा भय उसे नहीं है । निरवयव होने के कारण एक प्रदेशी परमाणु और सर्वव्यापक होने के कारण आकाश में ही अखण्डत्व रह सकता है, यह कोई तर्क नहीं है । अखण्डत्व का इतना ही अर्थ है कि वह पदार्थ टूटकर एक से दो न हो जाये, भले ही वह पदार्थ बड़ा हो या छोटा । अत: जैन दर्शनकार जीव को असंख्य-प्रदेशी अर्थात् असंख्यात परमाणुओं के माप जितना बड़ा मानता हुआ उसे अखण्ड स्वीकार करता है । वह सर्व शरीर में व्यापकर रहता है। इसीलिए संसारी अवस्था में स्व-स्व शरीर प्रमाण छोटे या बड़े आकारों में उसकी उपलब्धि होती है । जीव को शरीर - प्रमाण मानने में यह हेतु है कि ऐसा माने बिना, दुःख सुख का वेदन सर्वाङ्ग में न होकर शरीरके उस निश्चित प्रदेश में ही होने लगेगा, जिसमें कि वेदना - शक्तियुक्त जीवस्थित है, क्योंकि शरीर में वेदना - शक्ति नहीं है । शरीरस्थ नाड़ियों द्वारा वह वेदना शरीर के किसी भाग से भी जीव के स्थान तक पहुँच जाना तो कदाचित सम्भव हो भी जाये, परन्तु इस दशा में भी पीड़ा का अनुभव आत्म प्रदेशों में ही हो सकेगा, अर्थात् शरीर के उतने मात्र भाग में ही हो सकेगा जितने में कि जीव स्थित है। शेष शरीर में वह वेदन नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह सर्वथा जड़ है । परन्तु ऐसा प्रत्यक्ष प्रतीति में आ रहा । 'आत्मा तो छोटा है और उसका प्रकाश सारे शरीर में व्यापकर रहता है', ऐसा भी सम्भव नहीं है, क्योंकि गुण गुणी को छोड़कर उससे बाहर नहीं रह सकता । दीपक का दृष्टान्त भी यहाँ लागू नहीं होता, क्योंकि एक तो दीपक का प्रकाश वास्तव में उसका गुण नहीं और दूसरे वह जड़ है । दीपका का प्रकाशरूप गुण वास्तव में उसकी लौ में ही स्थित है, उससे बाहर नहीं । बाहर दीखने वाला प्रकाश दीपक के निमित्त से होने वाली बाह्य स्कन्धों की कोई अपनी ही पर्याय है । यह बात शरीर पर घटित नहीं होती, क्योंकि चेतन प्रकाश को पाकर जड़ शरीर चेतना - शक्तियुक्त नहीं हो सकता । अगुरुलघु नाम का सामान्य गुण बताते हुए पहले ही इस बात का निर्णय किया जा चुका है । अत: जीव को शरीर - व्यापी मानने के अतिरिक्त चारा नहीं है ।
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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