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________________ २. वस्तु स्वभाव कर्म सिद्धान्त ५. द्रव्य व भाव-यद्यपि उपरोक्त चतुष्टय अपनी-अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखते, परन्तु वस्तु में चारों बातें युगपत् देखी अवश्य जाती हैं। इन चार बातों में से भी द्रव्य तथा भाव प्रधान हैं, क्योंकि द्रव्य में आकृति की प्रधानता होने से वह क्षेत्रात्मक है और भाव में परिणमन की प्रधानता होने से वह कालात्मक है । या यों कह लीजिए कि 'क्षेत्र' द्रव्य का विशेष होने से द्रव्य में और 'काल' भाव का विशेष होने से भाव में गर्भित हो जाता है । क्षेत्र या आकृति द्रव्य का बाह्य रूप है और भाव व काल उसका अन्तरंग रूप है। द्रव्य या क्षेत्र की भाँति भाव व काल का सम्बन्ध आकाश-क्षेत्र से या आकृति से नहीं है, क्योंकि भाव रसात्मक होता है, उसमें स्थान की कल्पना को अवकाश नहीं। भाव अनुभव किये जा सकते हैं परन्तु आकृति की भाँति मापे नहीं जा सकते। आम का भाव तो खट्टा मीठा रस तथा उसका भीतरी सूक्ष्म परिणमन है और द्रव्य उसका बाहरी आकार है। बड़ा आम खट्टा और छोटा आम मीठा हो सकता है। कृशकाय व्यक्ति ज्ञानी और स्थूल-काय अज्ञानी हो सकता है, अथवा इससे विपरीत भी। तात्पर्य यह है कि वस्तु के ये दोनों अंग स्वतन्त्र हैं। द्रव्यात्मक आकृतिका या क्षेत्र की हानि-वृद्धि का भाव के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अत: वस्तु को समझने के लिये उसके द्रव्यात्मक व भावात्मक दोनों रूपों को ध्यान में रखना चाहिए। एक के बिना दूसरा रहता नहीं यह ठीक है, परन्तु एक के आधीन दूसरा हो ऐसा नहीं है। - द्रव्य व भाव का उपरोक्त विभाग एक ही वस्तु को दृष्टि में लेकर किया गया है। अब पुद्गल तथा जीव इन दो द्रव्यों को दृष्टि में लेकर विभाग करते हैं, क्योंकि प्रकृत विषय से इसका घनिष्ट सम्बन्ध है। यद्यपि सामान्य रूप से देखने पर दोनों पदार्थ द्रव्य व भाव उभय रूप हैं, क्योंकि दोनों में ही उभय अंश विद्यमान हैं । जिसके प्रदेश परस्पर में मिलने बिछुड़ने के लिए समर्थ हों और इसलिए जो बनाया तथा बिगाड़ा जा सकता हो, जो स्थूल प्रदेशात्मक कार्य कर सके, उठाया धरा जा सके, जोड़ा तोड़ा जा सके, वही लोक में 'द्रव्य' नाम से प्रसिद्ध होता है । ऐसा पदार्थ पुद्गल ही हो सकता है, क्योंकि इसमें ही स्कन्ध बनने की तथा टूटने की शक्ति है। इसमें यद्यपि भाव या गुण भी हैं, परन्तु लोक में क्रोध, प्रेम, सन्तोष, स्वार्थ आदि ज्ञानात्मक भावों को ही भाव कहा जाता है, रूप, रस आदि को नहीं । इसीलए पुद्गल में द्रव्यपना ही प्रधान है भावपना गौण । अत: इन दोनों में पुद्गल को द्रव्यात्मक पदार्थ माना गया जीव पदार्थ भी यद्यपि अनेक प्रदेशी हैं और उनमें संकोच विस्तार भी होता है पर वे मिल बिछड़ नहीं सकते, न ही जीव पदार्थ में लेने देने का, उठाने धरने का तथा बनाने बिगाड़ने का व्यवहार संभव है । उसका व्यवहार लोक में प्रदेश या क्षेत्र-प्रधान नहीं होता बल्कि क्रोधादि ज्ञानात्मक भावों के आश्रित होता है । अनुभव में भी वह
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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