SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म सिद्धान्त १. कर्म व कर्म फल - पुनर्जन्मका विषय यद्यपि साधारणजनों के लिए विवादापन्न है, परन्तु विचारकों के लिए प्रत्यक्षवत् है, क्योंकि आज के समाचार पत्रों-वाले युगमें ऐसे अनन्तों जीते-जागते दृष्टान्तों की कमी नहीं है, जो शैशव काल में ही अपने पूर्व जीवनों का निर्णीत परिचय दे रहे हैं, तथा परीक्षा करने पर जो सत्य सिद्ध हो रहे हैं। इतना ही नहीं पशु पक्षी व कीट पतंग आदि से मरकर मनुष्यों में और मनुष्यों से मरकर पशु आदि में उत्पन्न होना भी सम्भव है। आगम तो इस बात का साक्षी है ही, परन्तु व्यक्तिगत विभिन्न तथा चित्र विचित्र संस्कारों को अथवा प्रकृतियों को विचार पूर्वक पढ़ने से भी इस तथ्य की सत्यता जानी जा सकती है । अनेक मनुष्य-शरीरधारी व्यक्ति पशु प्रकृति के दिखाई देते हैं और अनेक पशु पक्षी मनुष्यों की भाँति बौद्धिक कार्य करते देख जाते हैं। ३. मूल हेतु कर्म अब देखना यह है कि प्राणिगत उपरोक्त वैचित्र्य का तथा पुनर्जन्म का कारण क्या है ? इसे स्वीकार न करने वाले चार्वाक, मुस्लिम व ईसाई मतों में यद्यपि इस कारण को खोजने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता, परन्तु इस तथ्य को स्वीकार करने वाले समस्त हिन्दू मतों में तथा बौद्ध मतों में इसकी खोज बराबर चालू रही है। उन-उन मतों का अनुसरण करने वाले अनेकों बुद्धिशाली ऋषियों ने इस गुह्य रहस्य को खोजने के लिए अपने जीवन बलिदान कर दिये, परन्तु उसका यथार्थ कारण जान न पाये। इतना अवश्य उन्होंने खोज निकाला कि इस सर्वका कारण 'कर्म' है। जैसा कैसा भी कर्म प्राणी करता है वैसा-वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है। योग दर्शन ने तथा उपनिषदकारों ने इस विषय को काफी समझा, परन्तु इस प्रश्न का जितना विस्तृत, विशद व तर्क पूर्ण उत्तर जैन दर्शनकारों ने दिया, उतना कोई भी न दे सका। अत्यन्त विशद तथा व्यापक दृष्टि के विषयभूत अत्यन्त गुप्त इस रहस्य से अनभिज्ञ अनेकों दार्शनिक खोज करने पर भी जब इस प्रश्न का कोई तर्क पूर्ण उत्तर न दे सके, तो आखिर किसी एक दिव्य ईश्वरीय शक्ति के चरणों में अपने विकल्पों को लीन कर देने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा उनके लिये शेष नहीं रह गया और उन्होंने यह कहकर सन्तोष कर लिया कि जीवों को उन उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुःख देने वाला ईश्वर है । जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उसका फल भोगने में ईश्वर के आधीन है। परन्तु वस्तु की गहनता को स्पर्श करने वाली वैज्ञानिक-सूक्ष्म दृष्टि वस्तु-स्वभाव का इस प्रकार गला घोंटा जाना कैसे स्वीकार कर सकती थी। ___ अत: वैज्ञानिक दृष्टि कोण को धारण करने वाले जैन दर्शन को इस प्रकार की फल दाता ईश्वरीय शक्ति स्वीकार न हो सकी। उसे यह सब कुछ व्यवस्था वस्तु के स्वभाव में ही दिखाई दे रही है। किसी एक व्यक्ति-विशेष के आधीन ऐसी निर्बाध व अभंग व्यवस्था चल सके, ऐसा उसे सम्भव प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ऐसा करने पर अनेकों शंकायें सामने आकर खड़ी हो जाती हैं । यथा
SR No.009554
Book TitleKarma Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy