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________________ चतुर्थ अधिकार ७१: तपश्चरणके प्रभावसे केवल मनुष्य ही नहीं, देव, भवनवासी देव, आदि सभी सेवक बन जाते हैं। सर्प, सिह, अग्नि शत्रु आदिके भय सर्वथा दूर हो जाते हैं। जिस प्रकार धान्यके बिना: खेत;गारके बिना सुन्दरी, कमलोंके विना सरोवर शोभित नहीं होते, उसी प्रकार तपश्चरणके अभावमें मनुष्य शोभा नहीं देता । इसी तपश्चरणके द्वारा मुनिराज दो तीन भवमें ही कर्म समुदायको नष्टकर मोक्ष-सुख प्राप्त कर लेते हैं । इसका प्रभाव इतना प्रबल है कि अरहंत देव, सबको धमों पदेश देनेवाले तथा देव, इन्द्र,नागेन्द्र आदिके पूज्य होते हैं । वे भगवान, उनके नाम को स्मरण करनेवाले तथा जैनधर्मके अनुसार पुण्य संचय कर. नेवाले सत्पुरुषोंको संसार महासागरसे शीघ्र पार कर देते हैं। जो क्षुधा, पिपासा, आदि अठारह दोषोंसे रहित हो, जो राग द्वेषसे रहित हो; समवशरणका स्वामी तथा संसार सागरसे पार करनेके लिए जहाजके तुल्य हो, उसे देव कहते हैं। बुद्धिमान लोग ऐसे अरहंत देवके चरणोंकी निरंतर उपासना किया करते हैं और उनके पाप क्षण भरमें नष्ट हो जाते हैं। भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा रोग, पापसे मुक्त और स्वर्ग मोक्ष प्रदान करनेवाली है। जो लोग ऐसे भगवानकी पूजा करते हैं, उनके घर नृत्य करनेके लिए इन्द्र भी वाध्य हैं । भगवानके वरण कमलोंकी सेवासे सुन्दर सन्तान, हाव भाव सम्पन्न सुन्दर स्त्रियां तथा समग्र भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। भगवानकी पूजा शत्रु-विनाशक और शत्रुसंहारक है। यह कामधेनुके सदृश इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।
SR No.009550
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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