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________________ चरकसंहिता - भा० टी० । विरुद्धयोनयोय स्थविरुपक्रमाभृशम् । वर्द्धन्तेदारुणा रोगाः शीघ्रंशीघ्रं सहन्यते ॥ २० ॥ सब रोग परस्पर विरोधी कारणोंके उत्पन्न होनेसे तथा बिरोधी चिकित्सह होनेसे शीघ्र २ वृद्धिको प्राप्त होकर मनुष्यको मारडालते हैं ॥ २० ॥ बलविज्ञानमारोग्यं ग्रहणीमांसशोणितम् । ( ८४० ) एतानियस्यक्षीयन्तेक्षिप्रक्षिप्रं हन्यते ॥ २१ ॥ जिस मनुष्यका बल, ज्ञान, आरोग्य, ग्रहणी, मांस और रक्त वह क्षीण होगये हों वह रोगी शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ विकारायस्यवर्द्धन्तेप्रकृतिः पारिहीयते । सहसासह सातस्य मृत्युर्हरतिजीविनम् ॥ २२ ॥ जिस रोगी के शरीर में विकार बढते चलेजायँ और स्वाभाविक प्रकृति नष्ट होती चलीजाय उस रोगकेि जीवितको मृत्यु शीघ्र हरलेती है ॥ २२ ॥ तत्रश्लोकः । इत्येतानिशरीराणिव्याधिमन्तिविवर्जयेत् । नह्येषुधीराः पश्यन्तिसिद्धिंकाञ्चिदुपक्रमात् ॥ २३ ॥ इति चरकसंहितायामिंद्र०कतमानिशरीरीयमिंद्रियं समाप्तम् ॥६॥ अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है इसप्रकार ऊपर कहे लक्षणोंवालें रोगियोंको त्यागदेना चाहिये क्योंकि इसप्रकार के रोगियोंकी किसीमकार चिकित्सा करनेमें बुद्धिमान् सिद्धिको नहीं देखते ॥ २३ ॥ इति श्रीमहार्ष चरक ० इन्द्रियस्थाने भाषा • कतमानिशररीियमिन्द्रियं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥ सप्तमोऽध्यायः । 7 i अथातः पन्नरूपीयमिंद्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः । अब हम पन्नरूपीय इन्द्रियनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवा आयजी कथन करनेलगे । दृष्टयांयस्यविजानीयात्पन्नरूपांकुमारिकाम् । प्रतिच्छायामयीमक्ष्णोर्नैनमिच्छेच्चिकित्सितुम् ॥ १ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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