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________________ ' शारीरस्थान-अ०६. (७५१) तिरमाश्रित्यवर्त्तयतिउपस्नेहोपस्वेदाभ्यामागर्भस्तुसदसद्भूतांगावयवस्तदन्तरंह्यस्यलोमकूपायनरुपस्नेहःकश्चिन्नाभिनाड्ययनैःनाभ्यांह्यस्यनाडीप्रसक्तासानाभ्याञ्चामराचास्यमातुः प्रसकाहृदयेमातृहृदयंह्यस्यताममरामाभिसंप्लवतेशिराभि:स्यन्दमानाभिः॥ २४ ॥ गर्भ माताके पीठकी ओर मुखकरके ऊपरको सिर कियेहुए सब अंगोंको संकोच करके जरायुसे लिपटाहुआ कुक्षीमें रहताहै । और यह भूख प्याससे रहित रहताहै। यह गर्भ परतंत्रवृत्ति है।माताके कियेहुए आहारके उपस्वेद और उपस्नेहसे पलताहै। तथा इसका जीवन माताके आहारके आश्रय है । गर्भके अंगावयव जबतक नहीं होते तबतक माताके गर्भाशयके सूक्ष्म रूपसे उपस्नेहको प्राप्त होता रहता है। फिर रोममार्गद्वारा गर्भका उपस्नेह होताहै । गर्भकी नाभिप्ते एक नाडी लगी हुई है जिसको नालवा कहते हैं। यही नाडी माताकी नाडियोंसे मिली हुई है। यह गर्भकी नाभिकी नाल माताके हृदय और गर्भके हृदयसे मिलीहुई है। इस नाडाको अमरा कहते हैं। रसके स्पंदन करनेवाली नाडियोंसे यह नाभिकी नाडी रस लेकर गर्भको पुष्ट करती रहती है ॥ २४ ॥ सतस्यरसासर्वबलवर्णकरःसम्पद्यतेच। सचसर्वरसवानाहारः ' स्त्रियाह्यापन्नगर्भायास्त्रिधारसःप्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टयेस्तन्यायगर्भवृद्धयेचसतेनाहारेणोपस्तब्धोवर्त्तयतिअन्तर्गतः ॥२५॥ दही रस गर्भको सब प्रकार बल और वर्ण उत्पन्न करताहै । गर्भवती स्त्री सब प्रकारक रस जो आहार करतीहै उसका तीन प्रकारका रस होताहै । उनमेंसे एक रससे गर्भवतीके शरीरकी पुष्टि होतीहै दूसरे प्रकारके रस स्तनोंमें दूध प्रकट करते हैं। तीसरे प्रकारका रस अंतर्गत हो गर्भको पालन करता है ॥ २५ ॥ गर्भके बाहर आनेका वृत्तांत । सचोपस्थितकालेजन्मनिप्रसूतिमारुतयोगात्परिवृत्त्याऽवाक्-. शिरानिष्क्रामत्यपत्यपथेन । एषाप्रकतिर्वितिरंतोऽन्यथापरन्वतएवस्वतन्त्रवृत्तिर्भवति ॥ २६ ॥ फिर वह गर्भ पूर्ण हो सर्वांगसम्पन्न होकर जन्मके.समय प्रसूत वायुके वेगसे परिव हो नाचेको सिर किंपे सतानमार्ग द्वारा बाहर गिरजाताहै । यह गर्भकी
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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