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________________ (580). शारीरस्थान - अ० ६. बीजक्षेत्र गुणसम्पञ्च्चाहार संपञ्चशरीरसंम्पञ्चसात्म्य संपञ्चसः स्वसंपच्चस्वभावसंसिद्धिश्चयौवनञ्चकर्मचसंहर्षश्चेति ॥ १५ ॥ संपूर्ण मनुष्योंके सब धातुओं को पुष्ट करनेवाले यह भाव होते हैं। जैसे- समयका उत्तमयोग स्वभावसिद्धि, आहारकी उत्तमता, किसीप्रकारका विघात न पहुंचना यह मनुष्यों के बलके बढानेवाले भाव होते हैं। जैसे - वलवान् पुरुषसे बलवान् स्त्रीमें और बलवान् देशमें, तथा बलवान् समयमें जन्म होना । सुखकारक कालका योग, वीज और क्षेत्रकी उत्तमता, सत्त्वकी उत्तमता, व्यायाम आदि बलकारक कर्म, यौवनाव स्था, अपना किया कर्म और प्रसन्नता यह सब मनुष्यों के शरीरको पुष्ट तथा बलऔर धातुओंकी वृद्धि करनेवाले भाव हैं ॥ १५ ॥ आहारपरिणामकरास्तुइमेभावाभवन्ति । तद्यथा - उष्मा, वायुः, क्लेदः, स्नेहः, कालः, संयोगश्चेति ॥ १६ ॥ तत्रतुखत्वेषामुमादीनामाहारपरिणामकराणां भावानामिमे कर्मविशेषाभव -- न्तितद्यथा । उष्मापचतिवायुरपकर्षतिक्लेदः शैथिल्यमापादयतिस्नेहोमार्दवंजनयतिकालः पर्य्यातिमभिनिर्वर्त्तयति संयोगस्तुएषां परिणामधातुसाम्यकरः सम्पद्यते ॥ १७ ॥ आहारको पाचन करनेवाले यह भाव होते हैं । जैसे- गर्मी, वायु, क्लेद, स्नेह, काल, और संयोग इन गर्मी आदि आहारके पाचन करनेवाले भावोंके आहारके पाचन करनेमें पृथक २ कर्म हैं। जैसे- गर्मी पचानेवाली है। वायु आकर्षण करती है । क्लेद · आहारको शिथिल करता है । खेह मृदु अर्थात् आहारको नरम बनाता है । काल पर्याप्त करता है अर्थात् ठीक समयपर उचित २ कार्यों को करताहै । समयपर भोजन न होने से परिपाकम भी विघ्न होता है । संयोग इन सबके परिणामसे धातुओंको साम्य करता है ॥ १६ ॥ १७ ॥ परिणामतस्त्वाहारस्यगुणाः शरीरगुणभावमापद्यन्तेयथास्वमविरुद्धाविरुद्धाश्च विहन्युर्विहताश्वविरोधिभिःशरीरम् ॥ १८ ॥ जब आहार पाचन होजाता है तो उसके गुण शरीरके गुण भावों में प्राप्त हो जाते हैं यदि आहार अविरुद्ध गुणवाला हो तो शरीरको पुष्ट करता है और विरोधी गुणवाला. हानेसे शरीरको नष्ट करदेता है ॥ १८ ॥ शरीरधातुके भेद | शरीरधातवस्त्ववंद्विविधाः संग्रहेणमलभूताः प्रसादभूताश्च । 1
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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