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________________ सूत्रस्थान-अ० १. (१७) . संचर, सेंधा, विड, उद्भिद् (खारी), सामुद्र यह पांच प्रकारके नमक होते हैं, यह चिकने, गर्म, तक्षिण, अत्यंत क्षुधावर्द्धक होते हैं और लेप, स्नेह, स्वेद आदि कर्ममें शरीरके नीचेऊपरके भागोंमें प्रयुक्त किये जाते हैं तथा निरूहण, अनुवा. सनं, अभ्यंग, भोजन, शिरोविरेचन, शस्त्रकर्म, वी, अमन, उत्सादन, अजीर्ण, अफरा, बादी, गोला, शूल, और उदररोग इनमें इनका प्रयोग किया जाताहै ॥ ८९॥ मूत्राष्टक तथा उपयोग। उक्तानिलवणान्यर्द्धमूत्राण्यष्टौनिबोधमे।मुख्यानियानिह्यष्टानिसर्वाण्यात्रेयशासने॥ ९० ॥ ऊपर सब लवणोंका कथन करचुके हैं अब आठ प्रकारके सूत्रोंका वर्णन सुनो, जो आठ प्रकारके प्रधान है ॥ ९०॥ अविमत्रमजामत्रंगोमत्रंमाहिषंतथा । हस्तिमत्रमथोष्टस्यहयस्यचखरस्यच ॥ ९१ ॥ उष्णन्तीक्ष्णमथोस्निग्धंकटुकंलवगान्वितम् । मूत्रमुत्सादनयुक्तं युक्तमालेपनेषुच ॥ ९२ ॥ युक्तमास्थापनेयुक्तंमूत्रश्चापिविरेचने । स्वेदेष्वपिचतयुक्तंमानाहेषुगदेषुच ॥१३॥ उदरेष्वथचास्सुिगुल्मकुष्ठकिलासिषु । तद्युक्तमुपनाहेषुपरिषकेतथैवच॥ ९४ ॥ दीपनीयंविषघ्नंचक्रिमिन्नंचोपदिश्यतेोपांडुरोगोपसृष्टानामुत्तमंशर्मचोच्यते ॥१५॥ श्लेष्माणशमयेत्पीतमारुतश्चानुलोमयेताकर्षेत्पित्तमधोभागमित्यस्मिन्गुणसंग्रहः ॥ ९६ ॥सामान्येनमयोक्तंतुपृथक्वेन प्रवक्ष्यते ॥९७॥ भेडका मूत्र,बकरीका मूत्र,गोमूत्र, भैसका मूत्र, हथिनीका मूत्र,ऊंटनीका मूत्र, घोडेका मूत्र, गधेका मूत्र यह आठ मूत्र हैं । यह-गर्म, तीक्ष्ण, चिकने, कटु और नमकीन है । इन मूत्रोंका उत्सादन, लेप, आस्थापन, विरेचन, स्वेदन, अफारा, उदररोग, अर्श, गुल्म, कुष्ठ, किलास, उपनाह ( पुलटिस ), परिषेक इनमें प्रयोग किया जाताहै । तथा आग्नेको दीपन करताहै और विष तथा कृमियोंको नष्ट करताहै। इन मूत्रोंका प्रयोग सब किसमके पाण्डुरोगोंमें परम उत्तम मानाहै । इनके पोनेसे कफ शान्त होताहै । वायुका अनुलोमन होताहै और बढा हुआ पित्त नीचे
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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