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________________ (५६०) चरकसंहिता-मा० टी०॥ मद, शोक, चित्तका उद्वेग, भय और हर्ष आदिक इन मनके दोषोंके विकार हैं। अर्थात् मनके रोग हैं ॥ ६॥ वावपित्तश्लेष्माणस्तुशारीरादोषास्तेषामपिचविकाराज्वराती: सारशोथशोषमेहकुष्ठादयइति ॥७॥ वात, पित्त और कफ यह शरीरमें रहनेवाले दोष हैं। ज्वर,अतिसार,शोथ,शोष, प्रमेह, कुष्ठ, आदिक उन दोषोंके विकार हैं ॥ ७ ॥ दोषाश्चकेवलाव्याख्याताः, विकारैकदेशश्च ॥८॥ यहांपर केवल दोषोंका कथन किया है और विकारोंके एकदशका कथन कियाहै ॥ ८॥ दोषोंका.त्रिविध कोप । तत्रतुखल्वेषांद्वयानामपिदोषाणांत्रिविधंप्रकोपणमसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगःप्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति । प्रकुपितास्तुप्रकोपणविशेषात् । द्रव्यविशेषाञ्चविकारविशेषानभिनिवर्तयन्ति । अपरिसंख्येयास्ते विकाराःपरस्परमनुवर्त्तमानाः कदाचिदनुबन्नीन्तकामादयोज्वरादयश्च। नियतस्त्वनुबन्धोरंजस्तमः सोः परस्परंनहरजस्कन्तमः ॥९॥ इन शारीरिक और मानसिक दाना प्रकारके दोषोंके ही कुपित करनेवाले तीन प्रकारके कारण होतेहैं । जैसे असात्म्य विषयोंका सेवन, प्रज्ञापराध और परिणाम (समय ) इनमें पृथक् २ प्रकोपके कारणोंसे तथा द्रव्याविशेषके वलसे कुपित हुए दोष अनेक प्रकारके विकारोंको उत्पन्न करतेहैं ।वह विकार असंख्य होतेहैं। कामादिक मानसिक विकार, ज्वरादिक शारीरिक विकार कभी२ मापसमें एक दूसरे आश्रयीभूत होजाते हैं अर्थात् एक दूसरेके सहायक होजातेहैं या आपसमें मिलजावई क्योंकि रजोगुण और तमोगुणका आपसमें परस्पर अनुबंध है।तमोगुण रजोबुणके. विना रह नहीं सकता ॥ ९ ॥ प्रायःशरिदोषाणामेकाधिष्ठीयमानानांसंन्निपातःसंसगोवा. समानगुणत्वाद्दोषाहिदूषणैःसमानाः ॥१०॥ शारीरिक दोषोंका एक ही अधिष्ठान ( रहनेका स्थान) होता है अर्थात् पान, पिच और कफका अधिष्ठान शरीर है। इसलिये प्रायः उनका संसर्ग और साब: पात होजाताहै। क्योंकि उष्ण, शीत आदि तथा रूक्ष, निग्ध आदि-दोषोंके पृथ
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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