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________________ ( ४८० ) चरकसंहिता - भा० टी० । : उन्मादरोगी पुरुष | पुरुषाणामेवंविधानां क्षिप्रमभिनिर्वर्त्तन्ते । तद्यथा-- भीरून णामुपक्लिष्टसत्त्वानामुत्सन्नदोषाणाञ्चमलविकृतोपहितान्यनुचितानि आहारजातानि वैषम्ययुक्तेनोपयोग विधिनोपयुञ्जानानां तत्र प्रयोगंवा विषममाचरतामन्यां वा चेष्टांविषमांसमाचरतामत्युपक्षीणदेहानाञ्च व्याधिवेगसमुद्भ्रमितानामुपहतमनसांवाकामक्रोध लोभ हर्ष भयशोकचिन्तोद्वेगादिभिः पुनरभिघाताभ्याहतानांचामनसिउपहतेबुद्धौचप्रचलितायामभ्युदीर्णादोषाः प्रकुपिता हृदयमुपसृत्यमनोवहानि स्रोतांसिआवृत्यजनयंतिउन्मादम्| उन्मादपुनर्मनोबुद्धिसंज्ञाज्ञानस्मृतिभ- . क्तिशालचेष्टाचारविभ्रमविद्यात् ॥ २ ॥ : वह उन्माद रोग इस प्रकारके पुरुषों के शररिमें शीघ्र उत्पन्न होते हैं । जो मनुष्य . अधिक डरपोक हैं, जिनका सत्त्वगुण बिगड गया हो, जिनके शरीरमें वात, पित्त, कफ यह अत्यन्त बढे हों। जिनके मल बिगडे हुए हों जिनके अनुचित आहारके करनेसे एवम् विषमभोजनके करनेसे तथा पूर्वोक्त विधिसे विपरीत रीतिपर भोजन करने से अथवा विषम चेष्टाओंके करनेसे शररिमें दोष कुपित हुए हों । जिस मनुष्यका शरीर क्षीण होगया हो अथवा व्याधिके वेगसे व्याकुल हो, जिसका चित्त काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, भय, शोक, चिन्ता और उद्वेग अन्य गद आदिसे व्याकुल हो अथवा दिमाग आदि स्थानमें चोट लगी हो । ऐसे ऐसे कारणोंसे मनुष्यका मन उपहत होकर बुद्ध चलायमान होजाती है । उस समय बढे हुए दोष कुपित होकर हृदयमें प्रवेश कर मनके बहनेवाले छिद्रोंको रोककर उन्मादरोगको उत्पन्न करते हैं । उस उन्मादके होनेसे - मन, बुद्धि, संज्ञा, ज्ञान, स्मृति, भक्ति, शील, चेष्टा तथा आहार इन सबमें विभ्रम होजाता है ॥ २ ॥ ११ उन्मादके पूर्वरूप | तस्येमानि पूर्वरूपाणि । तद्यथाशिरसः शून्यभावः चक्षुषोराकुलतास्वनःकर्णयोरुच्छ्रासस्याधिक्यमास्य संस्रवणमनन्नाभिला षोऽरोचकाविपाको हृदयग्रहोध्यानायाससम्मोहाद्वेगाश्चास्थाने सततं लोमहर्षोज्वरश्वाभीक्ष्णमुन्मत्तचित्तत्व मुदर्दितत्वमर्दिता
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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