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________________ (४६२) चरकसंहिता-भा० टी०। . वातपित्तयोऋष्यजितपित्तश्लेष्मणोःपुण्डरीकंश्लेष्ममारुतयोः सिध्मकुष्ठंसर्वदोषातिवृद्धोकाकणकमभिनिवर्तते।इत्येवमेषस. सविधःकुष्ठविशेषोभवति ॥६॥ ___ वात और पित्त इन दोनोंकी अधिकता होनेरी ऋष्पजिह्वनामक कुष्ट उत्पन्न होताहै । पित और कफके कोपकी अधिकता होनेसे पुण्डरीकनामक कुष्ठ उत्पन्न होताहै । एवम् कफ और वायुका कोप अधिक. होनेसे सिध्मनामक कुष्ठ उत्पन्न होता है । तथा तीनों दोषों के मिलकर वृद्धि होनेसे काकणकनामक कुष्ठ उत्पन्न होवा है । इन सात प्रकारके कुष्ठोंका कथन किया गया है ॥ ६ ॥ सचैषभूयोऽतःप्रकृतिविकल्पनयाभूयसीविकारसंख्यामापद्यते॥ सो ये सात प्रकारके ही कुष्ठ कारणादिकोंके विकल्पसे अनेक प्रकारके होजातेहैं ॥ ७॥ कष्टका साधारण निदान ।। तत्रेदंसर्वकुष्ठनिदानंपुनःसमासेनउपदेक्ष्यामः। शीतोष्णव्यत्यासमलानुपर्योपसेवमानस्यतथासन्तर्पणापतर्पणाभ्यवहार्यव्यत्यासंचमधुफाणितमत्स्यमलककाकमाचीःसततमतिमात्रमप्यजीर्णेसमश्नताश्चलिचिमञ्चपयसाहायनकयवकचीनकोदालककोरदूषप्रायाणिचान्नानिक्षीरदधितक्रकोलकुलत्थमाषातसीयषकुसु. म्भस्नेहवन्त्यतैश्चापिसुहितस्यव्यवायव्यायामसन्तापानप्युपसेवमानस्यभयश्रमसंतापोपहतस्यसहसाशीतोदकमवतरतोविदग्धमाहारमनुल्लिख्यविदाहीन्यभ्यवहरतःछाईश्वप्रतिघ्नतःस्नेहांश्चाभिचरतःयुगपत्त्रयोदोषाःप्रकोपमापद्यन्तोत्वगादयश्चत्वारः शैथिल्यमापद्यन्तोतेषुशिथिलेषुदोषाःप्रकुपिताःस्थानमभिगम्य सन्तिष्ठमानास्तानेवत्वगादीन्दषयन्तःकुष्ठान्यभिनिवर्तयन्तिा॥ सो अब फिर उन संपूर्ण प्रकारके कुष्ठोंका निदान संक्षेपसे कथन करतेहैं। सर्दी और गर्मीकी विपरीततोसे अथवा विपरीतभावसे सेवन करनेसे या अपने स्वाभाविक आहारविहारादिकोंको विपरीत रीतिपर सेवन करनेसे मलोंके कुपित करनेवाले पदाआँको निरन्तर सेवन करनेसे संतर्पण और अपतर्पणकी विपरीततासे भोजन, मधु,
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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