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________________ ( २२८ ) चरकसंहिता - भा० टी० । व्यधवन्धपडिन रज्जु दहनमन्त्राशनि भूतोपसर्गादीनि ॥ २ ॥ निजस्यतुमुखंवातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यम् ॥ ३ ॥ आगतुज रोगांके कारण यह होते हैं । जैसे-नख दंतादिका लगना, गिरना, अभिचार, अभिशाप, अभिपंग, वेधन, बंधन, पीडन, रस्सी आदिका बंधन, दहन, मंत्र, वज्रपात और किसी जानवर आदिके उपसर्गसे आगंतुज रोग होते हैं ॥ २ ॥ और वात, पित्त, कफकी विषमतासे निज ( शारीरिक ) रोग होते हैं ॥ ३ ॥ द्वयोस्तुखलुआगन्तुनिजयोः प्रेरणसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति । सर्वेपितुखल्वेतेऽभिप्रवृद्धाश्चत्वारोरोगाः परस्परमनुबध्नन्ति न चान्योन्यसन्देहमापद्यन्ते ॥ ४ ॥ आगंतुज और निज इन दोनों रोगोंको प्रेरण करके लानेका कारण असात्म्य पदार्थों का संभोग होना ही है और बुद्धिके अपराधका परिणाम भी कारण है क्योंकि सब वस्तुओंका अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग होनेसे ही दोनों प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती हैं । यह वातज, पित्तज, कफज, आगंतुज, चारों रोग बहुत वृद्धिको प्राप्त होनेसे परस्पर लक्षणों को प्रकाशित करते हैं । परंतु इनके एकके लक्षणांम दूसरेका संदेह नहीं होता ॥ ४ ॥ आगन्तुर्हिव्यथापूर्व समुत्पन्नोजघन्यं वातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यमापादयति । निजतुवातपित्तश्लेष्माणः पूर्ववैषम्यमापद्यन्ते जघन्यंव्यथामभिनिर्वर्त्तयन्ति । तेषांत्रयाणामपिदोषाणां शरीरस्थान विभागउपदेक्ष्यते ॥ ५ ॥ निज और आगंतुज रोगोंमें भेद केवल इतना ही है कि आगंतुज रोग पहले प्रगट होकर पीछे वात, पित्त, कफकी विषमताको धारण करता है । और निज रोगों पहले वात, पित्त, कफकी विषमता होकर पीछे रोगको उत्पन्न करते हैं । अब उन वात, पित्त, कफके स्थान विभागको कहते हैं ॥ ५ ॥ तद्यथावस्तिः पुरीपाधानंकटिः सक्थिनी पादावस्थीनिवातस्थानानि । तत्रापिपक्वाशयोविशेपेणवातस्थानम् ॥६॥ स्वेदोरसोलसीकारुधिरमामाशयश्चपित्तस्थानानितत्रापिआमाशयोविशेपेण पित्तस्थानम्॥७॥उरः शिरोग्रीवा पर्वाण्या माशयो मेदश्चश्लेमणः स्थानानि तत्रापिडरोविशेषेण श्लेप्मणः स्थानम् ॥ ८ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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