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________________ ६.११०) चरकसंहिता-भा० टी०। आत्रेयकी अनुभूत चिकित्सा । इदंचेदंचनःप्रत्यक्षयदनातुरेणभेषजेनातुरंचिकित्सामः। क्षाहमक्षामेनकृशंदुर्बलमाप्याययामः॥६॥ स्थूलंमेदस्विनमपतपैयामः । शीतेनोष्णाभिभूतमुपचरामः । शीताभिभूतमुष्णेन । न्यूनान् धातूम्पूरयामाव्यतिरिक्तानहासयामः व्याधीमूलविपर्ययेणोपचरन्तःसम्यक्प्रकृतीस्थापयामातेषांनस्तथाकुर्वतामयभेषजसमुदायः कान्ततमोभवति ॥ ७॥ हे मैत्रेय ! यह हमारा साक्षात् अनुभव है कि हम रोगीको रोगसे विपरीत गुण शाली (आरोग्यकारक) औषधिसे, और कमजोरको शक्तिवाली औषधसे चिकित्सा. कर आरोग्य करलेतेहैं । ऐसे ही कृश और दुर्वलको तर्पण औषधीद्वारा पुष्ट कर तेहैं । स्थूल और मेदवालेको रूक्षण कर कृश करलेतेहैं । एवं गर्मीसे पीडितको शीतल क्रिया द्वारा, शीतसे पीडितको उष्णक्रिया द्वारा, अच्छा करतेहै। रसरक्तादि धातुएं कम होगईही तो औषध द्वारा बढा देतेहैं।वढीहुई हों तो कमकर देते हैं। विषम होगईही तो यथोचित कर देतेहैं । इसी प्रकार जिसको जो रोग हो उस रोगके कार णसे विपरीत चिकित्सा कर रोगको दूर करके उसको स्वस्थ कर देतेहैं इस प्रकार । जिस २ को जो २ रोग हो उस २ रोगमें उसी २ प्रकारकी चिकित्साका प्रयोग करनेपर हमारी औषधिय परम लाभदायक होतीहैं ॥ ६ ॥७॥ भवंतिचात्र। .. साध्यासाध्यविभागज्ञोज्ञानपूर्वचिकित्सकः । कालेचारभतेकर्मयत्तत्साधयतिध्रुवम् ॥ ८॥ - इसीलिये कहाहै। जो वैद्य रोगको साध्य और असाध्य विचारकर ठीक समय पर हेतु और रोगके विपरीत चिकित्सा. करताहै वह वैद्य औषधसाध्य रोगोंको अवश्य जीतलेताहै ॥ ८॥ असाध्यरोगकी चिकित्साका फल ।। स्वार्थविद्यायशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम् । प्राप्नुयानियतवैद्योयोऽसाध्यंसमुपाचरेत् ।। ९ ॥ .. जो वैध असाध्यरोगमें चिकित्सा आरंभ करताहै उसके स्वार्थ( धनादि )विद्या, यश, नष्ट होजातेहें और अपयश फैलताहै तथा उद्योग व्यर्थ जाताहै । इसलिये असाध्य रोगमं यत्न करना वृथा हैं ॥ ९॥ '
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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