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________________ ममूखमाषानुवाद | संसार वनमें केवल भ्रमसे यह जीव भ्रमण करता रहता है ||१०|| अहो ! रोगकेस्थान, नानाप्रकारकी मधुर २ वस्तुओंसे परिवर्धित किये हुये, गुणरहित, तथा दुष्टों के समान दुःख देने वाले इस शरीर में यह आत्मा कैसे मोह करता होगा १ ॥ ५१ ॥ ये भोग सर्वके समान भयंकर है, असन्तोषके कारण हैं, सेवन के समय कुछ अच्छे से मालूम देते हैं परन्तु परिपाक (अगामी) समयमें किम्पाकफलके समान प्राणों के नाशक हैं। भावार्थ - किंपाकफल ऊपर से तो बहुत सुन्दर मालूम देता है परन्तु खाने पर बिना प्राण लिये नहीं छोड़ता । वैसे ही ये भोग हैं जो सेवन समय तो जरा मनोहरसे मालूम देते हैं परन्तु वास्तव में दुःखही कारण हैं ॥ ५२ ॥ ५ ३५ अहो ! कितने खेद की बात है कि यह जीव भोगों को भोगता तो है परन्तु उत्तरकालमें होने वाले दुःखोंको नहीं देखता जिसप्रकार विलाब प्रीतिपूर्वक दूध पीता हुआ भी ऊपरसे पढ़ने वाली लकड़ीकी मार सहन किये जाता है । इसप्रकार भव भ्रमणसे भय " जामिष्टेः पोषितेऽपि गुणातिगे मोसु कथं प्राणां पलः ॥५१॥ भोगास्तु भोगिक्ट्रीमा अतृविना मृगाम्। श्रापाने गुन्दाः पाकेक पत्त्राः ॥ ५२ ॥ भुणभांगावे दुदुमायो । कुटं नृपदंशकः ॥ ५१ ॥ इति निर्वेदमासाय स्वश्रममभीतीः । राज्यं नये
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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