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________________ समूलभाषानुवाद । कर विनयर्पूवक हाथजोड़कर बोला-स्वामी ! काँके नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे देओ ॥१६॥ भद्रबाहुके वचनोंको सुनकर गोवर्द्धनाचार्य बोले-वत्स ! संयमके द्वारा अपने मानवजीवनको सफल करो। गुरूकी आज्ञासे भद्रबाहुभी आत्माके दुःखका कारण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर हर्पके साथ दीक्षित होगये ॥११३॥११॥ निषि तथा श्रेष्ठबूतोंसे मण्डित कान्तिशाली, संसारके बन्धु तथा दिगम्बर (निर्गन्य) साधुओंके मार्गमें स्थित भद्रबाहु-संयके समान शोभने लगे । क्योंकि सूर्यभीतो रात्रिसे रहित तथा वर्तुलाकार होता है, तेजस्वी होता है, सारे संसारका बन्धु (प्रकाशक) होता है तथा गगनमार्गमें गमन करता रहता है ॥१५॥ मुनियोके मूलगुण रूप मनोहर मणिमयहारलतासे विभूषित तथा दयाके धारक भद्रबाहु मुनि जीवोंके प्रिय तथा हितरूप बचन बोलते थे ॥१६॥ प्रतिज्ञाओं के ग्रहण पूर्वक दुनिबार कामरूपहाथीको ब्रह्मचर्यरूप वृक्षम बाँधने वाले, परिग्रहमें ममत्व परिणामका छेदन करने देवामलो दीक्षा कर्मममनियईणाम् ॥ १॥ तद्वारसाकर्णनाद्योगी पार भाषित परम् । विधेहि यस | साफल्यं संपमेनामजन्मनः ॥ १३ ॥ गुरदाहामा प्रामाजीपरया मुदा । हित्वा स द्विधा धीरा देदिदुःसानिवन्धनम् ॥१९निॉपवरपृताभ्यो मानरो लोकवान्धवः । निरम्परपपस्योऽपि रोगी रयिपिम्वन् ! हनिमूलगुणोदारमणिहारविराजितः । उद्यापारमाबादी प्रियपानावदना
SR No.009546
Book TitleBhadrabahu Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherJain Bharti Bhavan Banaras
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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