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________________ अष्टपाहुड २६३ नहीं मानता वह संयमी होनेपर भी मिथ्यादृष्टि है।।२४ ।। अमराण वंदियाणं, रूवं दट्ठण सीलसहियाणं। ये गारवं करंति य, सम्मत्तविवज्जिया होति।।२५।। शीलसहित तथा देवोंके द्वारा वंदनीय जिनेंद्र देवके रूपको देखकर जो अपना गौरव करते हैं-- अपनेको बड़ा मानते हैं वे भी सम्यग्दर्शनसे रहित हैं।।२५ ।। असंजदं ण वंदे, वच्छविहीणोवि तो ण वंदिज्ज। दोण्णिवि होंति समाणा, एगो वि ण संजदो होदि।।२६।। असंयमीको वंदना नहीं करनी चाहिए और भावसे सहित बाह्य नग्न रूपको धारण करनेवाला भी वंदनीय नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही समान हैं, उनमें एक भी संयमी नहीं है।।२६।। ण वि देहो वंदिज्जइ, ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणो, णहु सवणो णेव सावओ होइ।।२७।। न शरीरकी वंदना की जाती है, न कुलकी वंदना की जाती है और न जातिसंयुक्तकी वंदना की जाती है। गुणहीनकी कौन वंदना करता है? क्योंकि गुणोंके बिना न मुनि होता है और न श्रावक होता है।।२७।। वंदमि तवसावण्णा, सीलं च गुणं च बंभचेरं च। सिद्धिगमणं च तेसिं, सम्मत्तेण सुद्धभावेण ।।२८।। मैं तपस्वी साधुओंको, उनके शीलको, मूलोत्तर गुणोंको, ब्रह्मचर्यको और मुक्तिगमनको सम्यक्त्वसहित शुद्ध भावसे वंदना करता हूँ।।२८ ।। चउसट्ठिचमरसहिओ, चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो। अणवरबहुसत्तहिओ, कम्मक्खय कारणणिमित्तो।।२९।। जो चौंसठ चमरसहित हैं, चौंतीस अतिशयोंसे युक्त हैं, निरंतर प्राणियोंका हित करनेवाले हैं और कर्मक्षयके कारण हैं ऐसे तीर्थंकर परमदेव वंदनाके योग्य हैं।।२९।। णाणेण दंसणेण य, तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पि समाजोग्गे, मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।३०।। ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चार गुणोंसे संयम होता है और इन चारोंका समागम होनेपर . मोक्ष होता है ऐसा जिनशासनमें कहा है।।३० ।। णाणं णरस्स सारो, सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं । सम्मत्ताओ चरणं, चरणाओ होइ णिव्वाणं ।।३१।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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