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________________ अष्टपाड जो रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, अव्यक्त है, चेतना गुणसे युक्त है, शब्दरहित है, इंद्रियोंके द्वारा अग्राह्य है और आकाररहित है उसे जीव जान।।६४ ।। भावहि पंचपयारं, णाणं अण्णाणणासणं सिग्घं। भावणभावियसहिओ, दिवसिवसुहभायणो होइ।।६५।। हे जीव! तू अज्ञानका नाश करनेवाले पाँच प्रकारके ज्ञानका शीघ्र ही नाश कर। क्योंकि ज्ञानभावनासे सहित जीव स्वर्ग और मोक्षके सुखका पात्र होता है।।६५ ।। पढिएणवि किं कीरइ, किंवा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो, सायारणयारभूदाणं।।६६।। भावरहित पढ़ने अथवा भावरहित सुननेसे क्या होता है? यथार्थमें भाव ही गृहस्थपने और मुनिपनेका कारण है।।६६।। दब्वेण सयलणग्गा, सारयतिरिया य सयलसधाया। परिणामेण असुद्धा, ण भावसवणत्तणं पत्ता।।६७।। द्रव्य सभी रूपसे नग्न रहते हैं। नारकी और तिर्यंचोंका समुदाय भी नग्न रहता है, परंतु परिणामोंसे अशुद्ध रहनेके कारण भाव मुनिपनेको प्राप्त नहीं होते।।६७।। णग्गो पावइ दुक्खं, णग्गो संसारसायरे भमई। __णग्गो ण लहइ बोहिं, जिणभावणवज्जियं सुइरं।।६८।। जो नग्न जिनभावनाकी भावनासे रहित है वह दीर्घकालतक दुःख पाता है, संसारसागरमें भ्रमण करता है और रत्नत्रयको नहीं प्राप्त करता है।।६८ ।। अयसाण भायणेण य, किंते णग्गेण पावमलिगेण। पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।।६९।। हे जीव! तुझे उस नग्न मुनिपनेसे क्या प्रयोजन? जो कि अपयशका पात्र है, पापसे मलिन है, पैशुन्य, हास्य, मात्सर्य और मायासे परिपूर्ण है।।६९।। पयडहिं जिणवरलिंगं, अभिंतरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियई।।७०।। हे जीव! तू अंतरंग भावके दोषोंसे शुद्ध होकर जिनमुद्राको प्रकट कर -- धारण कर। क्योंकि भावदोषसे दूषित जीव बाह्य परिग्रहके संगमें अपने आपको मलिन कर लेता है।।७० ।। धम्मम्मि णिप्पवासो, दोसावासो य इच्छुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो, णउसवणो णग्गरूवेण।।७१।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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