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________________ अष्टपाहुड नहीं हुआ। इसलिए तू संसारका नाश करनेवाले रत्नत्रयका चिंतन कर।।२३।। गहि उज्झियाइं मुणिवर, कलेवराई तुमे अणेयाइं। ताणं णत्थि पमाणं, अणंतभवसायरे धीर।।२४।। हे मुनिवर! हे धीर! इस अनंत संसारमें तूने जो अनेक शरीर ग्रहण किये तथा छोड़े हैं उनका प्रमाण नहीं है।।२४ ।। विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं। आहारुस्सासाणं, णिरोहणा खिज्जए आऊ।।२५।। हिमजलणसलिलगुरूयरपव्वयतुरुहणषडणभंगेहिं। रसविज्जजोयधारण, अणयपसंगेहि विविहेहिं ।।२६।। इय तिरियमणुयजम्मे, सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं। अवमिच्चुमहादुक्खं, तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ।।२७।। विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रग्रहण, संक्लेश, आहारनिरोध, श्वासोच्छ्वासनिरोध, बर्फ, अग्नि, पानी, बड़े पर्वत अथवा वृक्षपर चढ़ते समय गिरना, शरीरका भंग, रसविद्याके प्रयोगसे और अन्यायके विविध प्रयोगसे आयुका क्षय होता है। हे मित्र! इस प्रकार तिर्यंच और मनुष्य गतिमें उत्पन्न होकर चिरकालसे अनेक बार अकालमृत्युका अत्यंत तीव्र महादुःख तूने प्राप्त किया है।।२५-२७ ।। छत्तीसं तिण्णिसया, छावट्टिसहस्सवारमरणाणि। अंतोमुत्तमझे, पत्तोसि णिगोयवासम्मि।।२८।। हे जीव! तूने निगोदावासमें अंतर्मुहूर्तके भीतर छ्यासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार मरण प्राप्त किया है।।२८।। वियलिंदिए असीदी, सट्ठी चालीसमेव जाणेह। पंचिंदियचउवीसं, खुद्दभवंतो मुहुत्तस्स ।।२९।। हे जीव! ऊपर जो अंतर्मुहुर्तके क्षुद्रभव बतलाये हैं उनमें द्वींद्रियोंके ८०, त्रींद्रियोंके ६०, चतुरिंद्रियोंके ४० और पंचेंद्रियोंके २४ भव होते हैं ऐसा तू जान।।२९।। रयणत्तये अलद्धे, एवं भमिओसि दीहसंसारे। इय जिणवरेहिं भणिओ, तं रयणत्तय समायरह।।३०।। हे जीव! इस प्रकार रत्नत्रय प्राप्त न होनेसे तूने इस दीर्घ संसारमें भ्रमण किया है इसलिए तू रत्नत्रयका आचरण कर ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है।।३०।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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