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________________ कुंदकुंद-भारती यदि शांतभावसे निर्मल धर्म, सम्यग्दर्शन, संयम, तप, और ज्ञान धारण किये जायें तो जिनमार्गमें यही तीर्थ कहा गया है ।। २६ ।। ाठवणे हि यं सं, दव्वे भावे हि सगुणपज्जाया । चउणादि संपदिमे, भावा भावंति अरहंतं । । २७ ।। २८० नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इनके द्वारा गुण और पर्यायसहित अरहंत देव जाने जाते हैं । च्यवन', आगति', और संपत्ति' ये भाव अरहंतपनेका बोध कराते हैं । दंसण अनंत णाणे, मोक्खो णट्टट्टकम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो, अरहंतो एरिसो होई ।। २८ । जिसके अनंत दर्शन और अनंत ज्ञान है, अष्टकर्मोंका बंध नष्ट होनेसे जिन्हें भावमोक्ष प्राप्त हो चुका है तथा जो अनुपम गुणोंको धारण करता है ऐसा शुद्ध आत्मा अरहंत होता है ।। २८ ।। जरवाहिजम्ममरणं, चउगइगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोसकम्मे, हुउ णाणमये च अरहंतो । । २९ ।। जो बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, चतुर्गतियोंमें गमन, पुण्य और पाप तथा रागादि दोषोंको नष्ट कर ज्ञानमय होता है वह अरहंत कहलाता है ।। २९ ।। गुणठाणमग्गणेहिं य, पज्जत्तीपाणजीवठाणेहिं। ठावण पंचविहेहिं, पणयव्वा अरहपुरिसस्स ।। ३० ।। गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण और जीवसमास इस तरह पाँच प्रकारसे अर्हत पुरुषकी स्थापना करना चाहिए । ।। ३० ।। तेरहमे गुणठाणे, सजोइकेवलिय होइ अरहंतो । चउतीस अइसयगुणा, होंति हु तस्सट्ठ पडिहारा ।। ३१ ।। तेरहवें गुणस्थानमें सयोगकेवली अरहंत होते हैं। उनके स्पष्ट रूपसे चौंतीस अतिशयरूप गुण तथा आठ प्रातिहार्य होते हैं । । ३१ । । इइंदिये च काए, जोए वेदे कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्सा, भविया सम्मत्त सण्णि आहारे । । ३२ ।। गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इन चौदह मार्गणाओंमें अरहंतकी स्थापना करनी चाहिए ।। ३२ ।। १. स्वर्गादिसे अवतार लेना । २. भरतादि क्षेत्रो में आकर जन्म धारण करना ३. संपत् रत्नवृष्टि आदि ।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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