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________________ अष्टपाहुड जाता है इसलिए ज्ञान जानने योग्य है।।१९।। जइ णवि कहदि हु कक्खं, रहिओ कंडस्स वेज्झयविहीणो। तह णवि लक्खदि लक्खं, अण्णाणी मोक्खमग्गस्स।।२०।। जिस प्रकार धनुर्विद्याके अभ्याससे रहित पुरुष बाणके लक्ष्य अर्थात् निशानेको प्राप्त नहीं कर पाता उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष मोक्षमार्गके लक्ष्यभूत आत्माको नहीं ग्रहण कर पाता है।।२०।। णाणं पुरिसस्स हवदि, लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स।।२१।। ज्ञान पुरुष अर्थात् आत्मामें होता है और उसे विनयी मनुष्य ही प्राप्त कर पाता है। ज्ञान द्वारा यह जीव मोक्षमार्गका चिंतन करता हुआ लक्ष्यको प्राप्त करता है।।२१।। मइधणुहं जस्स थिरं, सदगुण बाणा सुअस्थि रयणतं। परमत्थबद्धलक्खो, ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स।।२२।। जिस मुनिके पास मतिज्ञानरूपी स्थिर धनुष्य है, श्रुतज्ञानरूपी डोरी है, रत्नत्रयरूपी बाण है और परमार्थरूप शुद्ध आत्मस्वरूपमें जिसने निशाना बाँध रखा है ऐसा मुनि मोक्षमार्गसे नहीं चूकता है।।२२।। सो देवो जो अत्थं, धम्मं कामं सुदेइ णाणं च। सो देइ जस्स अस्थि हु, अत्थो धम्मो य पव्वज्जा।।२३।। देव वह है जो जीवोंको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका कारणभूत ज्ञान देता है। वास्तवमें देता भी वही है जिसके पास धर्म, अर्थ, काम तथा दीक्षा होती है।।२३।। धम्मो दयाविसुद्धो, पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो, उदययरो भव्वजीवाणं ।।२४।। धर्म वह है जो दयासे विशुद्ध है, दीक्षा वह है जो सर्व परिग्रहसे रहित है और देव वह है जिसका मोह दूर हो गया हो तथा जो भव्य जीवोंका अभ्युदय करनेवाला हो।।२४ ।। वयसम्मत्तविसुद्धे, पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे। ण्हाऊण मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण।।२५।। जो व्रत और सम्यक्त्वसे विशुद्ध है, पंचेंद्रियोंसे संयत है अर्थात् पाँचों इंद्रियोंको वश करनेवाला है और इस लोक तथा परलोकसंबंधी भोग-परिभोगसे निःस्पृह है ऐसे विशुद्ध आत्मारूपी तीर्थमें मुनिको दीक्षा-शिक्षारूपी उत्तम स्नानसे पवित्र होना चाहिए।।२५।। जं णिम्मलं सुधम्मं, सम्मत्तं संजमं तवं णाणं। तं तित्थं जिणमग्गे, हवेइ जदि संतभावेण।।२६।।
SR No.009545
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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