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________________ ३१ पोताने कहेवानुं बधुं समजावी दे छे. "ते आसराजथी लक्ष्मीना धामरूप कुमारदेवीना कुक्षिसरमां वस्तुपाल नामक पुत्र थयो. तेमना अग्रज (मोटा भाई) मल्लदेव अने अनुज (नाना भाई) तेजपाल नामक भ्रातृओ थया". त्यार बाद तेओए मंत्रीश्वरनी मुद्रा केवी रीते प्राप्त करी तेनो पूर्व परिचय आपतां कवि लखे छे के ते समयमां चौलुक्यकुलचंद्र लवणप्रसादना कुलने उज्ज्वल करनार वीरधवल देव राज्यधुराने धारण करता हता. गुजरातना प्राचीन पाटनगर अणहिलपुरनो संस्थापक वनराज हतो ते आख्यायिकाने अनुसरी आ ग्रंथकारे पण अणहिलपुरने आदिराज वनराजना कातिप्रभा जेवू जणाव्युं छे. वस्तुपाळमां उत्तम प्रकारना सात 'वि'कारो हता तेनी नोंध लेतां सूरिश्री कहे छे के "विभुता, विक्रम, विद्या, विदग्धता, वित्त, वितरण (दान), विवेक वगेरे 'वि'कारो-विशिष्ट गुणो वस्तुपाळमां होवा छतां तेनामां 'विकार' (दुष्टभाव) न हतो.२ वस्तुपाळ नाम 'व' थी शरु थाय छे ते आदि शब्दनो सुमेळ साधी कर्ता ते ज शब्दमां जुदा जुदा गुणोनुं दिग्दर्शन करावे छे. आवी ज बल्के आने मळती एक उक्ति वस्तुपाळना कवि सोमेश्वरे 'अर्बुदप्रशस्ति'मां रची छे, जेमां कवि कहे छे के 'वंश, विनय, विद्या, विक्रम अने सुकृतकार्योमा वस्तुपाळ समान कोई पण पुरुष क्यांय मारी दृष्टिये आवतो नथी.'३ आ प्रमाणे ग्रंथरचयिता धर्मग्रन्थने अनुकूळ वस्तुपाळनुं वंशवर्णन ट्रंकमां पण अलंकारसंयोजन साथे नोंधी तेनी मुख्य मुख्य हकीकतोने आलेखे छे. ५. संघपति अने तेना धर्मो धर्माचरणना मुख्य अंगोमां तीर्थयात्रा ए आवश्यक अंग मनाय छे. दरेक धर्ममां तीर्थयात्रानुं महत्त्व दर्शावेलुं छे. हिंदुधर्मनां घणां खरां पुराणोमां तीर्थमाहात्म्यनां भारोभार वर्णनो जोवामां आवे छे. आ सिवाय मुस्लिम, पारसी, क्रिश्चियन वगेरे बीनहिन्दु धर्मोमां पण तीर्थयात्रानां विवेचनो लखाया छे. जैन धर्मशास्त्रकारोए पण तीर्थयात्रा- अपूर्व महत्त्व पोताना धर्मग्रन्थोमां नोंध्यु छे एटलुं ज नहि पण धर्मनां सर्वोत्कृष्ट साधनोमांनुं ते एक होवा- भारपूर्वक सूचव्युं छे. धर्मद्रष्टा विजयसेनसूरिए वस्तुपाळने धर्मोपदेश आपतां तीर्थयात्रा करवानो अप्रतिम १. सोऽयं कुमारदेवीकुक्षिसर:सरसिजं श्रियः सदनम् । श्रीवस्तुपालसचिवोऽजनि तनयस्तस्य जनितनयः ।।१९।। यस्याग्रजो मल्लदेव, उतथ्य इव वाक्पतेः । उपेन्द्र इव चेन्द्रस्य, तेज:पालोऽनुजः पुनः ॥२०॥-सर्ग १. २. विभुताविक्रमविद्याविदग्धतावित्तवितरणविवेकैः । यः सप्तभिर्वि-कारैः कलितोऽपि बभार न विकारम् ।। सर्ग १, २३. ३. अन्वयेन विनयेन विद्यया विक्रमेण सुकृतक्रमेण च । क्वापि कोऽपि न पुमानुपैति मे वस्तुपालसदृशो दृशोः पथि ॥ सोमेश्वरकृत अर्बुदप्रशस्ति ।।
SR No.009540
Book TitleDharmabhyudaya Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanbalashreeji
PublisherBhadrankar Prakashan
Publication Year2010
Total Pages515
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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