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________________ ই७ को एक मानवनो विचार भेददृष्टि तरफ वळी करवामां आवे त्यारे हिन्दुस्ताननो, गुजरातनो, मुंबईईलाकानो, अमदावादमां अमुक पोळनो अमुक शेरीनो अमुकनो पुत्र एम विचाराय छे. तेज मनुष्यने अभेद दृष्टिथी विचारवामां आवे त्यारे उलटा क्रमे विचाराय. अकशेरीनो अमुक पोळनो अमदावादनो मुंबई इलाकानो गुजरातनो हिन्दुस्ताननो मानव जीव अने छेवटे आत्म प्रदेशमय ज्ञानमय सत्. आम वस्तु एकनी एक होवा छतां एकज वस्तुमां कोईनी दृष्टि भेदरूपे परिणमे छे, तो कोइनी दृष्टि अभेदरूपे परिणमे छे. आ अमेद अने भेद वस्तुभां छे. आधी विचारणाओना प्रकारोने जैनशास्त्रमां नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ अने एवंभूत आ सात प्रकारना नयोमां समावेश करेल छे. संमतितर्क ग्रंथमां आ सात नयोने छ नयोमां संकलित करेल छे. अभेददृष्टिरूप द्रव्यार्थिक नयमां संग्रह अने व्यवहार नयने लीघा छे. अने पर्यार्थिक नयमां ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ अने एवंभूत ए चार नयोने संकलित कर्या छे. वस्तुमात्रमा सामान्य (अभेद) अने विशेष (भेद) वे धर्म छे. सामान्यग्राहि दृष्टि ते अभेददृष्टिद्रव्यार्थिकनयमां समाय छे, अने विशेषग्राहि दृष्टि ते भेददृष्टि- पर्यायार्थिक नयमां समाय ले. सत्तारूप तत्त्वने अखंडपणे ग्रहण करनार प्रथम दृष्टि ते संग्रहनय छे, अने ते सत्ताने जीव अजीव आदिरूपे विभाग करी तेना भेदोमां ज्यारे दृष्टि प्रवर्ते त्यारे ते व्यवहार नय कहेवाय छे. आ संग्रह अने व्यवहारनय एद्रव्यार्थिकनयना भेद छे. भिन्न भिन्न सर्व वस्तुमां भेद ते कल्पनामूल होवाथी असत्, अने अभेद ते पारमार्थिक होवाथी केवळ सतुरूप अखण्ड ने ग्रहण करनारी दृष्टि ते संग्रह नय छे, आ संग्रह नय शुद्ध द्रव्यार्थिक नय छे. अने व्यवहार चलाववा मथती जीव अजीव विगेरे विभागने करती दृष्टि ते व्यवहार नय छे. आ व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय छे. आम कोई पण पदार्थना सामान्य तस्वने अवलंबी जाति के गुण आदिनी विशेषताथी गमे तेला पेटा विभागो करवामां आवे छतां तेमां काळने अवलंबी फेरफार न करवामां आवे सुधी ते वधा विभागो व्यवहार नयमां समाय छे. अर्थात् सत् रूप अखंड तत्त्वने जीव मनुष्य आर्य वगेरे भेदे खंडित करी व्यवहार चलाववा माटेनी दृष्टि ते ते पदार्थमां काळने अवलंबीने भेदमां न पेसे त्यां सुधी ते व्यवहार नयनी मर्यादामां छे, केमके आ बधा भेद star छतां ते दृष्टि परिमित अभेदस्पर्शी छे। अने तेथीज ते द्रव्यार्थिक नय कहेवाय छे. "Aho Shrutgyanam"
SR No.009536
Book TitleSammatitarka Maharnavatarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydarshansuri
PublisherJainmarg Prabhavaka Sabha Madras
Publication Year
Total Pages556
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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