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________________ कचतुर्थम् । ] भाषाटीकासमेतः । शतानीको मुनर्भेदे वृद्धे शालावृकः शुनि । शृगाले वानरे वाऽथ बिले चान्द्रे शिलाटकः ॥ २२५ ॥ शृङ्गाटको भवेद्वारिकण्टके च चतुप्पथे । सङ्घाटिका युगे नासाकुट्टिनीजलकण्टके ॥ २२६ ॥ सन्तानिका दधिक्षीरसारे मर्कटजालके । संदंशिका तु मुकुटीलोहयन्त्रप्रभेदयोः ॥ २२७ ॥ न्यात्सुप्रतीक ईशानदिग्गजे दिव्यविग्रहे । शृगालिका शिवायां स्यात्रासादपि पलायने ॥ २२८ ॥ क्लीबे सैकतिकं मातृयात्रामङ्गलसूत्रयोः । त्रिषु संन्यस्तसंदेहजीविक्षपणिकेप्विदम् ॥ २२९ ॥ पुमान् सैकतिको गन्धकुट्यां सिन्धोश्च सैकते । खभा- परहस्तस्थां यो न साधयितुं क्षमः ॥ २३० ॥ शतानीक-एकमुनि, वृद्ध, (पुं०) सुप्रतीक ईशान दिशामें होनेवाला शालावृक-कुत्ता,गीदड,बन्दर,(पुं०) हस्ती, सुंदर अंगवाला मनुष्य शिलाटक-बिल, चन्द्रकान्तमणि, (पुं०) या चंद्रशाला, (पुं० ॥ २२५ ॥ शृगालिका-गीदडी, भयसे भागना, शङ्गाटक-मानू जलका कांटा (सिं- र घाडा), चोराहा अर्थात् चार तर (स्त्री० ) ॥ २२८ ॥ फका रास्ता, (पुं० ) सैकतिक-मातृयात्रा, मंगलसूत्र, संघाटिका-जोडा, नासिका, कुटिनी- (न०) संन्यासी, संदेहजीवी, मुनि, स्त्री, सिंघाडा, (स्त्री०) २२६ ॥ (त्रि.) ॥२२९॥ मुरा नाम औषध, सन्तानिका-दधि दुग्धका सार, समुद्रका रेतीला स्थल (पुं० ) दूसबन्दरका जाल, (स्त्री० ) रेके हाथमें गई हुई अपनी स्त्रीको संदंशिका-संडासी, लोहका यंत्र | लेनेमें जो समर्थ न हो वह, भोजनवेशेष, (स्त्री० ) ॥ २२७ ॥ केलिये हुवा संन्यासी ॥ २३ ॥ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009534
Book TitleVishwalochana Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Sharma
PublisherBalkrishna Ramchandra Gahenakr
Publication Year1912
Total Pages436
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Dictionary
File Size9 MB
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