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________________ रतृतीयम् । ] भाषाटीकासमेतः । ३०५ नागरो नगरोद्भूते विदग्धेऽप्यभिधेयवत् । नागरं मस्तके शुण्ठ्यां रतभेदेऽपि नागरम् ॥ १६९ ।। निकरो निवहे सारे न्यायदेयधनान्तरे । निकारः स्यात्परिभवे धानस्योत्क्षेपणेऽपि च ॥ १७० ॥ सूर्याश्वे फेनकर्पासतुषवह्निः निर्झरः। निर्जरस्त्रिदशे त्यक्तजराके त्वभिधेयवत् ।। १७१ ॥ निर्जरा तु गुडूच्यां स्यात्तालपत्र्यां च दृश्यते । निर्वरं निस्त्रपे सारे निर्भये कठिनेऽपि च !! १७२ ॥ निष्ठुरः कठिनेऽपि स्यात्रपाशून्येऽपि निष्ठुरः। स्यान्नीवरो वाणिजके वास्तव्ये त्रिषु नीवरः ॥ १७३ ॥ पङ्कारः सेतुसोपानशैवले जलकुब्जके । पञ्जरस्तु शरीरे स्यात्पक्षिपाशे तु पञ्जरम् ॥ १७४ ॥ नागर-नगरमें होनेवाला, चतुर, निर्जर-देवता, (पुं० ) वृद्धावस्थार. (त्रि.) हित (त्रि.) ॥ १७१ ॥ नागर-नागरमोथा, सोंठ, मैथुनभेद निर्जरा-गिलोय, तालपर्णी, (स्त्री.) (न०) ॥ १६९ ॥ निर्वर-निर्लज, सार, निर्भय, कठिन निकर-समूह, सार, न्यायसे देनेयोः | र (त्रि.)॥ १७२ ॥ ग्य धन, (पुं०) निष्ठुर-कठिन, लज्जारहित, (त्रि.) नीवर-वणिजकरनेवाला ( पुं०) निकार-तिरस्कार, धान्यका पिछो- | बसनेवाला, (त्रि.) ॥ १७३ ॥ इना, (पुं० ) ॥ १७० ॥ पंकार-पुल, पैड़ी, सिवाल, काई(पुं०) निर्झर-सूर्यका घोड़ा, झाग, कपास, पंजर-शरीर (पु.) तुषोंकी अमि, (पुं०) पंजर-पक्षीका पिंजरा (न०) १७४ २० "Aho Shrutgyanam"
SR No.009534
Book TitleVishwalochana Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Sharma
PublisherBalkrishna Ramchandra Gahenakr
Publication Year1912
Total Pages436
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Dictionary
File Size9 MB
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