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________________ उत्पातमेदः (३१) आग्नेये पीज्यते याम्या वायव्ये पुनरुत्तरा । वाकणे पश्चिमा चात्र पूर्वा माहेन्द्रमण्डले ॥ १६६ ॥ ॥ इति मण्डलोपरि उत्पातेन देशे वर्षज्ञानम् ॥ अथ प्रसंगत उत्पातभेदा यथा-- भूमिकम्पे प्रजापीडा निर्घाते तु नृपक्षयः । अनावृष्टिस्तु दिग्दाहे दुर्भिक्षं पांशुवर्षणे ॥१६॥ क्षयकृत्पांशुवृष्टिश्च नीहारश्च भयङ्करः । दिग्दाहोऽग्निभयं कुर्यान्निर्धातो नृपभीतिदः ॥१८॥ झञ्झावायुश्चण्डशब्दश्चौरभीतिप्रदायकः। भूकम्पो दुःखदायी च परिवेषश्च रोगकृत् ॥१६९।। ग्रहयुद्धे राजयुद्धं केतौ दृष्टे तथैव च । ग्रहणान्ते महावृष्टिः सर्वदोषविनाशिनी ॥१७०॥ उल्कापाते श्रेष्ठनाशो द्रुमच्छिन्ने धनक्षयः । उत्तर दिशा, वारुणमण्डल में पश्चिम दिशा और माहेन्द्रमण्डल में पूर्व दिशा पीडित होती है ॥ १६६ ॥ . भूमिकंपसे प्रजा को पीड़ा, वज्र गिरने से राजा का नाश, दिग्दाह मे अनावृष्टि, धूल की वर्षा होने से दुर्भिक्ष होता है ॥ १६७ ॥ धूल की वार्थ क्षय करती है, कुहर (बरफ) गिरे तो भयदायक है, दिग्दाह हो तो अग्नि का भय करता है और वज्र गिरने से राजा को भय होता है।॥१६८॥ झंझावायु और तीक्ष्णशब्द ये दोनों चोरों का भय करता है, भूकम्प होना दुःखदायक है, चन्द्रसूर्य का परिवेष (घेरा) रोग करता है ॥ १६६ ॥ ग्रहों के युद्ध से, तथा केतु के दर्शन से राजाओं में युद्ध होता है । यदि ग्रहण के अंत में अधिक वर्षा हो तो सब दोषों का विनाश हो जाता है ॥१७॥ उल्कापातसे श्रेष्ठ पुरुष का नाश, वृक्ष के टूटने से धन का नाश और प "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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