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________________ केतुचारफलम् मासषट्का द् भवेल्लाभो रेवत्यां मुद्गमाषतः ॥५९॥ प्रागुक्तोत्पातयोगेऽपि नक्षत्रफलमीदृशम् । ज्ञास्वैष सङ्ग्रही यः स्याद् वश्यास्तस्याशु सम्पदः ||३०|| अथ केतुविचारः । रविमण्डलवदेवामौ प्रविष्टाः केतवः सदा । वहन्ते तेजसा पूर्णा दृश्यन्ते ते कदाचनः ॥ ६१ ॥ रविरस्ताचले प्राप्तौ पश्चिमायां निरीक्ष्यते । यदा वह्निशिखाकार-स्तदा तृदयो वदेत् ॥ ६२ ॥ प्रातस्तद्दर्शने लोके शिखालतारकोदयः । स पुच्छस्तारकः सोऽयमित्येवोक्तिः प्रवर्त्तते ॥ ६३ ॥ जातिर्मासवशादेषामुत्पातान्त निरूपिता । फलं यत् प्रतिनक्षत्रं विचित्रं तदधोच्यते ॥ ६४ ॥ अश्विन्यामुदितः केतु- हन्यादश्मकपालकम् । (२२७) लाभ हो ॥ ५६ ॥ इस तरह पहले उत्पात प्रकरण में नक्षत्रों के फल कहे हैं ये सब जानकर कोई संग्रह करे तो लक्ष्मी उसके वशीभूत ( प्राप्त ) होती है ॥ ६ ⚫ || केतु हमेशा रविमण्डलकी तरह अग्रिमें रहते हैं, अर्थात केतु अनि के समान चमकदार हैं और तेज करके पूर्ण हैं, कभी कभी दिखाई पडते हैं ॥ ६१ ॥ सूर्य जब अस्ताचलको प्राप्त हो तब पश्चिम दिशामें देखना, यदि अमिकी शिखाके सदृश आकार मालूम हो तो केतु का उदय कहना चाहिए ॥ ६२ ॥ उस शिवावाले नाराके उसका लोक में प्रातः समय दर्शन हो तो उसे पुच्छडिया तारा कहते हैं ऐसी प्रथा चल रही है ॥ ६३ ॥ महीने के कारण उसकी जाति उत्पातके अन्त निरूपण की गई, अब उसके प्रत्येक नक्षत्र के विचित्र विचित्र फलको कहते हैं ॥ ६४॥ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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