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________________ मेघमहोदये कचित् पुनः-संवत्सराङ्क द्विगुणीकृत्यैकं मीलयेस्ततः । सप्तभिर्भागदानेन योध्यं वर्षशुभाशुभम् ॥२४॥ यथोदाहरणम्- संवत् १६८७ द्विगुणीकरणे १७४ एकयोगे १७५ सप्तभिर्भागे शून्यं तेन दुर्भिक्षम् । संवत्सरे द्विगुगिगते त्रिभिरन्वितेऽथ, नन्दैविभाजनमनुष्यफलं तु शेषे । युग्मे२ त्रिके३ जलनिधौ४ च सुभिक्षमेके, षड्दै नन्दयो श्च समतापर ५-७-८ तोऽतिदौस्थ्यः॥२५॥ अत्र संवत्सरशब्देन केचिद विक्रमराजमंवत्सरंगणयन्ति तन्न युक्तं,सर्वत्र ज्योतिश्चरैःशाकस्यैव गणनात्, तेन विक्रमकाल इति कचिद् न भ्रमितव्यं, विक्रमकालस्य कालो विनाश इति। अर्थात्-शाकं त्रिनिघ्नं मुनि भाजित च, शेषं द्विनिनं शरसंयुतं च। वर्षा च धान्यं तृणशीततेजो-वायुश्च वृद्धिः क्षयधिग्रहौ च।।२६।। का शुभाशुभ कहना ॥ २४ ।। उदाहरण--- संवत् १६८७ है उसको द्विगुणा किया तो १७४ हुए इसमें एक और मिलाया तो १७५ हुए, उसको ७ से भाग दिया तो शून्य शेष रहा । इसलिए उस वर्ष दुष्काल जानना ।। फिर भी.. संवत्सरको द्विगुणा कर तीन मिला देना, उसमें नवसे भाग देकर शेष का फल कहना ! जो शेष एक दो तीन या चार बचै तो सुकाल, छ या नव बचैतो समान और पांच सात या आठ बचैतो अधम समय जानना ।। २५॥ यहां संवत्सर शब्दसे कोई विक्रम संवत्सर गिनते हैं यह योग्य नहीं है, सर्वत्र ज्योतिषियों को शालिवाहन का शक संवत्सर ही जानना चाहिये । इस लिए कहीं विक्रम काल का भूम नहीं करना चाहिये । शक संवत्सर को त्रिगुगह। कर सातसे भाग देना और शेषको द्विगुणा कर इसमें पांच मिला देना, तो वर्षा धान्य तृण शीत तेजः वायु वृद्धि क्षय और विग्रह होते हैं ॥ २६ ॥ इमका फल ...--- वर्षके विश्वाको त्रिगुणा कर इसमें तीन मिला देना उसको "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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