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________________ संवत्सराधिकारः (८३) रुद्रदेवस्तु - संवत्सरस्य ये अंका अधोलिखिताः क्रमात् । बेदासहिता ये तु मुनिभिर्भागमाहरेत् ॥ २१ ॥ आधे चतुष्के दुर्भिक्षं सुभिक्षं द्विकपञ्चके । त्रिषष्ठे मध्यमः कालः शून्ये शून्यं विनिर्दिशेत् ।। २२ ।। तथा - काली विक्रमभूपतेः प्रथमतस्त्रिस्नाडयते मीलनात, पश्चात्पञ्चयुते तुरङ्गमहते शेषाङ्कमालीचयेत् । द्वाभ्यां वह्निभिरिन्द्रियै रमयुतैः कालांतमत्वं वदेत्, शून्येनामनां चतुःशशधरे स्यान्मध्यमत्वं सदा ॥ २३ ॥ अत्र यदि पञ्चैव योज्यन्ते तदा सप्तवर्षानन्तरमवश्यं शून्यं समायानि, न च नत्र दुष्कालनियम:, तेन पञ्च योगकरणमिति कोऽर्थः ? पञ्च मनुष्यांक्ता अङ्काः क्षेष्या इति इष्ट वचनम् । F संवत्सर के अंक और शताब्दी के अंक ये दोनों नीचे नीचे लिख कर मिला देना, इस में पांच और मिला कर सात का भाग देना, जो शेष बचे उस का फल कहना || २१ | जो शेष एक या चार हो तो दुष्काल, दी या पांच हो तो मुकाल, तीन या छ हो तो मध्यम और शून्य हो तो शून्य फल कहना ॥ २२ ॥ विक्रम संवत्सर की शताब्दी को और वर्ष को त्रिगुणा कर इकट्टा | करना, इस में पांच और मिलाकर सात से भाग देना, जो शेष बचै उसका फल विचारना शेष दो तीन पांच या छ बचे तो उत्तम समय कहना, एक या चार चर्चे तो मध्यम समय कहना और शून्य शेष बचै तौ अधम समय कहना ॥ २३ ॥ यहां यदि पांच मिलातें तो सात वर्ष पर्यंत क्रमशः अवश्य शून्य आती है, इससे यहां दुष्कालका नियम नहीं इसलिये पंच योग का अपांच मनुष्योक्त अंको की मिलाना यही इष्ट है । फिरभी संवत्सर के अंकों को द्विगुणा कर एक मिला देना, इसमें सातसे भाग देकर शेषसे वर्ष म्हा, "Aho Shrutgyanam"
SR No.009532
Book TitleMeghmahodaya Harshprabodha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year1926
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size12 MB
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