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________________ रिष्टभंगलक्षणः कल्लोलो शनिभिः क्रमाद् धर्माष्टाङ्गान्त्य गैर्न वमाष्टम लग्नव्यय गतैर्बलिष्ठजीवाहष्टैररं झटिति मृत्युः । जीवदृष्टैर्न मृत्युः । बलहीन जीव दृष्टैः शनैर्मृत्युः ॥ २॥ जन्मलग्न कर्क या वृश्चिक हो, तथा पाप ग्रह चक्र के पूर्वभाग में हो और शुभ ग्रह चक्र के उत्तर भाग में हो तो बालक की शीघ्र ही मृत्यु कहना । जन्म लग्न के जितने अंश उदय में हो, उतने अंश दशम राशि का छोड़ कर बाकी के अंशों से लेकर ग्यारहवां बारहवां लग्न दूसरा तीसरा और चौथा स्थान की राशि के लग्न के उदित अंश बराबर अंश तक यह चक्र का पूर्वभाग है । और लग्न के उदित भाग बराबर चौथे स्थान की राशि के अंश छोड़कर बाकी के अंश, पांचवां छठा सातवां आठवां नववां श्रौर दसवें स्थान की राशि के लग्न के उदित अंश बराबर अंश यह चक्र का उत्तर भाग है। सूर्य नवमस्थान में, मंगल आठवें, क्षीणचंद्रमा लग्न में और शनि बारहवें स्थान में हो, उनको बलवान् वृहस्पति देखता न हो तो जातक की शीघ्र ही मृत्यु कहता । परन्तु उनको बलवान बृहस्पति देखता हो तो मृत्यु नहीं कहना और बलहीन वृहस्पति देखता हो तो कुछ समय के बाद मृत्यु कहना ॥२॥ अथ योगान्तरमार अङ्ग वास्ते खलान्तर्वान्त्यारिगैः स्वाष्टगैः खलैः । सोग्रे पापान्तरे वेन्दौ कोरणाष्टास्तान्त्यकाङ्गगे ॥३॥ अंगे लग्ने वास्ते सप्तमे खलान्तः पापद्वयमध्यस्थे सति मृत्युः । अर्थान्तरादंगेऽस्ते वा सौम्यद्वयमध्यस्थे न मृत्युः । वा प्रन्त्यारिः व्ययषष्ठगतैः खलैः कृत्वा, वा स्वाष्टगैर्धनाष्टगतैः खलैर्मृतिः । वा क्षीणेन्दौ सोग्रे उग्राः क्रूरास्तैः सह वर्त्तत इति सोग्रस्तत्र सोग्रे सपापे शुभैरदृष्टे सति मृतिः । वेन्दौ क्षीणचन्द्र पापान्तरे पापद्वयमध्यगते 'कोणाष्टास्तान्त्यकांगगे' पञ्चमनवमाष्टमसप्तमव्ययचतुर्थ ३७ लग्नानामेकतमस्थे मृतिः । शुभदृष्टे सति रिष्टाभावः ||३|| लग्न अथवा सप्तम स्थान दो पाप ग्रहों के बीच में हों तो मृत्यु कहना । परंतु शुभ ग्रहों के बीच में हो तो मृत्यु नहीं कहना। एवं छठे और बारहवें स्थान में अथवा दूसरे और आठवें स्थान में पाप ग्रह हों तो जातक की मृत्यु कहना । अथवा क्षीण चंद्रमा के साथ पाप ग्रह हो उसको शुभ ग्रह कोई देखता न हो तो जातक की मृत्यु कहना । अथवा क्षीण चंद्रमा दो पाप ग्रहों के बीच में हों और नववें पांचवें आठवें सातवें बारहवें चौथे या लग्न में रहा हो तो जातक की मृत्यु कहना । परन्तु शुभ ग्रह देखते हों तो मुत्यु न कहना ॥३॥ अथ योगान्तरमाह वेष्टेऽब्जे दुःसुमिश्रेक्ष्येऽष्टारौ दृग्दिग्युगाब्दतः । नादृष्टे वा न सत्पक्षे निशि कृष्णेऽह्नि जन्म चेत् ॥४॥ अब्जे क्षीणेन्दौ प्रष्टारौ श्रष्टमस्थे षष्ठस्थे वा सति दुःसुमिश्रेक्ष्ये दृग्दिग्युगाब्दतो मृत्युः क्रमेण कथ्यः । तद्यथा - क्षीपेन्दौ षष्ठेऽष्टमे वा दुरीक्ष्ये "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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