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________________ अष्टम कल्लोल १०६ इति चतुर्थः । अथैतौ द्वौ लग्ने भवतस्तदा पञ्चमः । अथैतौ परस्परं परक्षेत्रे भवतस्तदा षष्ठ; । अथैतौ निजगेहे भवतस्तदा सप्तमः । अन्य शास्त्र में कहा है कि किसी भी राशि पर रहा हुआ चन्द्रमा यदि शनि के द्रष्कारण में या नवांश में हो, उसको मंगल देखता हो तो निर्ग्रन्थ व्रती होता है । श्रथवा चन्द्रमा मंगल के नवमांश में हो, उसको मंगल और शनि देखते हों तो निर्ग्रन्थ दीक्षित होवे । श्रथवा लग्न को चन्द्रमा गुरु, बुध और शनि देखते हों तो दीक्षित होवे । शनि शुभ राशि का होकर लग्न में रहा हो और चन्द्रमा, वृष राशि में या वृष के नवमांश में होकर दूसरे ग्रहों को देखता हो तो धनवान व्रती होता है । यदि धर्म स्थान में गुरु हो तथा लग्न श्रौर चन्द्रमा को शनि देखता हो तो राजा दीक्षित, शास्त्र रचने वाला और शासन कारक होवे । यदि धर्म स्थान में शनि रहा हो, उसको कोई ग्रह देखता न हो और राजयोग भी हो तो राजा होवे. बाद में बलवान शनि की दशा में निर्ग्रन्य दीक्षा होवे । अब दूसरे शास्त्र में कहे हुए सात प्रकार से व्रतीयोग बतलाते हैं- लग्नपति लग्न को और धर्म स्थान का पति धर्म स्थान को देखता हो । १। लग्नपति धर्मस्थान को और धर्मस्थान का पति लग्न को देखता हो |२| लग्नपति धर्म स्थान के पति को या धर्मं स्थान को श्रौर धर्म स्थान का पति लग्न के स्वामी को देखता हो |३| लग्नपति और धर्मपति दोनों धर्मं भवन में हों |४| अथवा ये दोनों लग्न में हों |५| अथवा ये दोनों श्रापस में परस्पर ( एक दूसरे के ) स्थान में हों |६| प्रथवा ये दोनों अपने-अपने स्थान में हों ।७। तो जातक दीक्षित होवे । अथ योगान्तरमाह बलार्कौक्ष्येऽबलार्केन्द्रीज्ये खस्थे चाङ्गगेऽसुखी । पश्यत्यङ्गपति रिक्तं पूर्णेन्दौ कृच्छ्रभुग् विराः ॥ १५ ॥ अबलार्केन्द्वीज्येऽबला निर्बला येऽर्केन्द्रोज्याः सूर्यचन्द्रगुरवस्तेषां मध्येऽन्यतमे खस्ते दशमस्थे बलार्कीक्ष्ये सति, वाथवाङ्गगे लग्नस्थे बल्यार्कीक्ष्ये च बलिष्ठो य नकिः शनिस्तेनेक्ष्ये दृष्टे च व्रती परमसुखी दुःखी । अथ पूर्णेन्दौ रिक्तं निर्बलं, अङ्गपति लग्नपति पश्यति कृच्छ्रेण भुक्, कृच्छ्रेण महता कष्टेन भुङ्क्ते स दुःखभोजी व्रती, किं विशिष्टो विरा विगता रा द्रव्यं यस्य स विराः ।। १५ ।। दृति दीक्षायोगा: । सूर्य, चन्द्रमा और गुरु इनमें से कोई एक निर्बल होकर दशवें स्थान में अथवा लग्न में रहा हो, और उसको बलवान शनि देखता हो तो दुःखयुक्त दीक्षित होवे । एवं पूर्ण चन्द्रमा निर्बल लग्नपति को देखता हो तो बड़े कष्ट के साथ भिक्षा मिले ऐसा दरिद्री व्रती होवे ||१५|| "Aho Shrutgyanam"
SR No.009531
Book TitleJanmasamudra Jataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherVishaporwal Aradhana Bhavan Jain Sangh Bharuch
Publication Year1973
Total Pages128
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size19 MB
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