SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥१५॥ १९४ श्रीअज्ञातसूरिविरचिता चोर हुइ डीलिई चोरी करइ अनई] पुरोहित डोलि भाढीतु पाडणहार कलाली हुइ तेणिई नगरि अहो नागरिक लोको वनवास लिउ तउ छूटउ । बीजी परिई तिहां रहिया वणसीजीइ । किस्या भणी ! जिहां थकुं शरण जोईइ तिहां जि थकु भय ऊपजइ तउ किसिउं कीजइ ! ॥१५॥ नरेन्द्रकन्याः किल रूपवत्यस्तवावरोधे ननु सन्ति बझ्या । तपाकृशां जल्लभरातिजीर्णवस्त्रां विमुश्चाशु मम स्वसारम् ॥१६॥ महो राजन् ! ताहरी आज्ञाना पालणहार अनेक राजान अनेक व्यवहारीया प्रमुख लोक तेहनी कन्या धणीइ सम्हारी साझामाहि छई । तेह, पाणिग्रहण करि । पुण ए महासती तपिई करी दूबली श्लेष्मां करी भरी अतिजीर्णवस्त्रानी पहिरिणहारि माहरी बहिनि मूंकि ॥१६॥ निशम्य सूरीश्वरवाक्यमेतन्न भाषते किश्चिदिह सितीशः । श्रीकालिकाचार्यवरोऽथ संघस्याग्रे स्ववृत्तान्तमवेदयत् तत् ॥१७॥ श्रीकालिकसूरिनुं वचनं सांभलीनई राजा गर्दभिल्ल वलकु(तु) ऊतर न आपइ न बोलइ । श्रीकालिकसूरि पछइ. पोसाला भाबी समग्र सपल संघ तेडाबीनइ तेह आगलि सघल वृत्तांत्त कहिउ ॥१७॥ संघोऽपि भूपस्य सभासमक्षं, दक्षं वचोऽभाषत यन्नरेन्द्र ! । न युज्यते से यदिदं कुकर्म, कर्तुं प्रमो! पासि पितेव छोकम् ॥१८॥ ति वार पूठिई श्रीसंघ सघल मिली रायनी समां गिउ । राय वीनविउ, अहो नरेंद्र ! तुं प्रजालोकनई पितातणी परिपालमै । तुझ रहिं ए कुकु(क)र्म करदा युक्तं नहीं । तुझ रहि ए अन्याय करवा युक्तु नही ॥१८॥ इति युवाणेऽपि यथार्थमुच्चैः, संघे न चामुञ्चदसौ महीशः । महासती तामिति तनिशम्य, 'कोपेन सन्धां कुरुते मुनीशः ॥१९॥ श्रीसंघिई रायनई वीनती कीधी 1 यथार्थ वात कही । पुण राजाई सर्वथा न की। राजा वलतु स्तरइ न दिह । पद श्री स]धिहं तिहां थका भावी गुरु वीनव्या । पछह गुरे श्रीसंघ भागलि प्रतिज्ञा कीधी ॥१९॥ ये अत्यनीका जिनशासनस्य, संघस्य ये चाशुभवर्णवाचः । उपेक्षकोडाइकरा धरायां, तेषामहं यामि गति सदैव ॥२०॥ जे मनुष्य जिनशासन ऊपर वैरभार वहई महाप्रत्यनीक हुइ । अनइ जे वली जिनशासान]नां अवर्णव बोलइ जे जिनशासनि उड्डाह करई तेहया मनुष्यनई सीपा(खा)मण देउं । तेहनी गतिई सदाइ जाउं तेहर्नु निवारव करउं ॥२०॥ यथेनमुर्थीपतिगर्दभिल्लं, कोशेन पुत्रैः प्रबलं च राज्यात् । नोन्मूलयामीति कृतप्रतिज्ञो, विधाय वेषं महिलानुरूपम् !॥२१॥ माहरा जाण्यानुं प्रमाण जु ए गर्दभिल्ल राजा बेटासहित भंडारसहित अंतेउरसहित राज्य पालतु उन्मूली करी न लांखू तु कहिन्यो । इसी प्रतिज्ञा श्रीसंघ आगलि कीधौ । प्रतिज्ञा कीधा पूठिई श्रीकालिकसूरे गहिलानु वेस कीधु ॥२१॥ भ्रमत्यदः कर्दमलिप्तगात्रा, सर्वत्र जल्पन् नगरी विशालाम् । श्रीगर्दभिल्लो नृपतिस्ततः किं, भो ! रम्यमन्तःपुरमस्य किंवा ॥२२॥-त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सीताद यथा चन्दनातिवृष्टात् ॥ लम्पटापरापे गर्दभिल्लं प्रत्वा नोत्पाटयेऽहं तदनु च कालिकाचार्य एषः-इति भावार्थः ।। ४ युग्यम् PI "Aho Shrutgyanam"
SR No.009529
Book TitleKalikacharya Kathasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherKunvarji Hirji Naliya
Publication Year1949
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy