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________________ कालिकाचार्यकथा । १६३ ते श्रीकालिकसूरि पृथ्वीमंडलि भव्यजोब रूपिणी पृथ्वीई धर्मवृष्टि करता विहारक्रम करह छइ । एकवार विहार करता अवंती कहतां ऊजेगोइ पुहता। सरस्वती महासती साथिइं विहारक्रम करती ऊजेणीई पुहती ॥९॥ साध्वीसमेताऽपि गताऽथ बाह्यभूमौ नरेन्द्रेण निरीक्षिता सा । इंसुरूपा यदियं सुशीला, नूनं वराको मृत एव कामः ॥१०॥ अथ एतलानु अनंतर ते सरस्वती महासती एक वार बाहिरि भूमि पुहती हती । तेसिइ गर्दभिल्ल राजा रवाडी गिउ हतु । ते महासती दृष्टिइ दीठो तिसिइ मनमाहि चौतववा लागु । नूनं निश्चई काम कंदर्प जीवतु नथी मूइ वर्तइ । जु एहवी रूपर्वति स्त्री अनइ सुशील वर्तइ । ए वात आयुक्ती जाणीइ । माहरइ एहवी स्त्री घरि हुइ तु माहर भाग्य ॥१०॥ श्रीकालिकाचार्यसहोदरत्वं, पूतकुर्वती ही जिनशासनेश! । यद्गदेभिल्लेन नृपाधमेन, मां नीयमानां निजवेश्म रक्ष ॥१२॥ तिसिइ गर्दभिल्लराई सयज्ञा(संज्ञा) करी सरस्वती महासती अपहरावी । महासती तिसिइ पोकारि गाडिहं करवा लागी । अहो श्रीकालिकाचार्य ! अहो श्रीजिनशासनेश ! राजान सघलामाहि अधमाधम गर्दभिल्ल महापापी राजा मानई अपहरी जाइ छइ । आपणइ घरि लेह जाइ छइ राषु(खु) राषु(खु) ॥११॥ इति ब्रुवाणा कुनृपेण पुम्मिर्नीता निजं धाम महासती सा । ज्ञात्वा च वृत्तान्तमयेनमुच्चैश्चैकोप सरिर्गुणलब्धिभूमिः ॥१२॥ तदा तेणिइ समइ ते सरस्वती महासती ते पापिष्ट गर्दभिल्लरायने सेवके रायना गृहोगणमाहि लोधी । ति वारइ श्रीकालिकसरि आचार्ये ते वात सांभली । ति वारई अत्यंत अतिहि कोप चडिउ। प्रवाहिई ते कालिकाचायें समा गुणतणी मूमिका छई। पुण जिनशासनि उड्डाहनु कारणहार ते उपरि कोप थाइ एतलई युक्तं छह ॥१२॥ श्रीकालिकाचार्यगुरुनृपान्ते, जगाम कामं नयवाक्यपूर्वम् । नृपं जगादेति नरेन्द्र ! मुश्च, स्वसारमेतां मम यवतस्याम् ॥१३॥ श्रीकालिकसूरि आचार्य रायनइ समीपि गिआ । अनेक ज्ञा(न्या)यनां वचन बोल्या ते राजाज्ञाय धर्मनु पालक माहरी बहिनि व्रत पालइ छइ । ते मेल्हि जिम आपणुं व्रत रूडी परिहं पालइ ते व्रतनु विभाग तुझनइ आवइ ॥१३॥ अन्योऽपि यो दुष्टमतिः कुशीको, भवेत् त्वया स मतिषेध्य एव । अन्यायमार्ग स्वयमेव गच्छन् , न लज्जसे सत्यमिदं हि जातम् ॥१४॥ महो राजन् ! अनेरुइ जे कोइ दुष्टमति हुइ, कुशील हुइ कुलाचारि ही(हु)इ, तेहनई राजा सीषा(खा)मण दिन । तेहनइ अन्याय करतां बारह । तूं एवड्डु पृथ्वीपति राजा स्वयमेव करतउ हुँतउ लाजतउ नथी । एतलई ए वात साची इवी । किसी ते वार्ता ? ॥१४॥ यत्रास्ति राजा स्वयमेव चौरो, भाण्डीवहो या पुरोहितश्च । वनं भजध्वं ननु नागरा भो !, यतः शरण्याद् भयमत्र जातम् ॥१५॥ जिम लोकं माहिल ऊषा(खा)ण कहवाइ ते हवडा खरउ ऊषा(खा)णु दोसइ छछ। जेणिई नगरि राजा स्वयमेव + अन्यसुखमाराध्य "Aho Shrutgyanam"
SR No.009529
Book TitleKalikacharya Kathasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbalal P Shah
PublisherKunvarji Hirji Naliya
Publication Year1949
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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