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________________ प्रास्ताविक निवेदन। ६१. विविध तीर्थकल्प श्रीजिनप्रभसूरि रचित कल्पप्रदीप-अथवा विशेषतया प्रसिद्ध विविध तीर्थकल्प-नामका यह ग्रन्थ "जैन साहित्यकी एक विशिष्ट वस्तु है । ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों प्रकारके विषयोंकी दृष्टिसे इस अन्धका बहुत कुछ महत्त्व है । जैन साहित्य-ही-में नहीं, समग्र भारतीय साहित्यमें भी इस प्रकारका कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । यह ग्रन्थ, विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमें, जैन धर्मके जितने पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध प्रसिद्ध तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्धकी प्रायः एक प्रकारकी 'गाईड-बुक' है। इसमें वर्णित उन उन तीर्थों का संक्षिप्त रूपसे स्थानवर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी है। ६२. ग्रन्थकार आचार्य __ मन्थकार अपने समयके एक बड़े भारी विद्वान और प्रभावशाली जैन आचार्य थे । जिस तरह, विक्रमकी १७ वीं शताब्दीमें, मुगल सम्राट अकबर बादशाहके दरबार में जैन जगद्गुरु हीरविजय सूरिने शाही सन्मान प्राप्त किया था, उसी तरह जिनप्रभ सूरिने भी, १४ वीं शताब्दीमें तुघलक सुलतान महम्मद शाहके दरबारमें बड़ा गौरव प्राप्त किया था। भारतके मुसलमान बादशाहोंके दरबार में, जैन धर्मका महत्त्व बतलानेवाले और उसका गौरव बढानेवाले, शायद, सबसे पहले ये ही आचार्य हुए। इनकी प्रस्तुत रचनाके अवलोकनसे ज्ञात होता है, कि इतिहास और स्थल-भ्रमणसे इनको वडा प्रेम था । इन्होंने अपने जीवनमें भारतके बहुतसे भागोंमें परिभ्रमण किया था। गूजरात, राजपूताना, मालवा, मध्यप्रदेश, बराड, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंग, विहार, कोशल, अवध, युक्तप्रांत और पंजाब आदिके कई पुरातन और प्रसिद्ध स्थानोंकी उन्होंने यात्रा की थी। इस यात्राके समय, उस उस स्थानके बारेमें, जो जो साहित्यगत और परंपराश्रुत बातें उन्हें ज्ञात हुई उनको उन्होंने संक्षेपमें लिपिबद्ध कर लिया और इस तरह उस स्थान या तीर्थका एक कल्प बना दिया । और साथ-ही-में, ग्रन्थकारको संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंमें, गद्य और पद्य दोनों ही प्रकारसे, ग्रन्थरचना करनेका एकसा अभ्यास होनेके कारण, कभी कोई कल्प उन्होंने संस्कृत भाषामें लिख लिया तो कोई प्राकृतमें; और इसी तरह कभी किसी कल्पकी रचना गद्यमें कर ली तो किसीकी पद्यमें । किसी एक स्थानके बारेमें पहले एक छोटीसी रचना कर ली और फिर पीछेसे कुछ अधिक वृत्त ज्ञात हुआ, और वह लिपिबद्ध करने जैसा प्रतीत हुआ, तो उसके लिये परिशिष्टके तौर पर और एक कल्प या प्रकरण लिख लिया गया। इस प्रकार भिन्न भिन्न समयमें और भिन्न भिन्न स्थानोंमें, इन कल्पोंकी रचना होनेसे, इनमें किसी प्रकारका कोई क्रम नहीं रह सका।
SR No.009519
Book TitleVividh Tirth Kalpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Gyanpith
Publication Year1934
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tirth
File Size5 MB
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