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________________ दुक्खक्खओ मेरे सारे दु:ख दूर हो! गुलाब दूसरों को सुगन्ध देता है लेकिन सुगन्धित नहीं कर सकता । परमकृपालु परमात्मा आप तो प्रसन्नता देते भी हो और भक्तजन को सहज प्रसन्नता के स्वामी बना भी सकते हो। इसलिए ही मैं आपसे बिनती। करता हूँ कि इस दास को भवोभव आपकी सेवा का अधिकार प्राप्त हो । “प्रभु मेरे अवगुण चित्त न धरो समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।" ही ऐसे है कि मनुष्य का निर्मल मन भी दम्भ, दोष और दुर्भाव से कलुषित हो जाता है। और संक्लेश का भाजन बन जाता है। संसार में रहकर मन को सहज, स्वस्थ और सरल बनाना बहुत ही कठिन काम हैं। मेरा उदास चहेरा और मेरे नकारात्मक विचार ही बताते हैं कि मेरे मनमें कितना संक्लेश भरा हुआ है ? संक्लेश को दूर किये बिना प्रसन्नता कभी नहीं आती और शुभभाव के बिना संक्लेश हटता ही नहीं । ऐसा शुभभाव आपकी सेवा के बिना मिलता ही नहीं । अतः हे प्रभु! मुझे जन्मोजन्म आपकी सेवा मिलें । मैं तो नीच, अधम, पापी और कुपात्र हूँ फिर भी मैं आपका ही हूँ। हे प्रभु ! पापी समजकर आप मुझे दूर करोंगे तो मैं कहाँ जाऊँगा? चाहे कितना भी गन्दा मनुष्य जब गुलाब के पास जाता है तो उसे सुवास का ही अनुभव होता है । उसी तरह महान पापी भी आपकी शरण में आयें तो उसे प्रसन्नता का ही अनुभव होता है। -२४ मलिनता से भरे हुए हाथ से मुँह साफ करना असम्भव है। कादव से भरे हुए झाडू से घर की सफाई करना असम्भवित है। यानि कि मुँह साफ करने के लिए हाथ स्वच्छ रखना जरुरी है तो घर को साफसुथरा बनाने के लिए झाडू भी स्वच्छ रखना जरुरी है। उसी प्रकार दुःखो से बचते रहना है तो दुर्भावनाओं से दूर रहना अनिवार्य है। गन्दे झाडू से या गन्दे हाथ से तो गन्दकी बढ़ती ही है वैसे ही दुर्भावनाओं से भरे हुए मन से दुःख ही बढ़ते हैं। हे परमकृपालु परमात्मा ! दुर्भावनाओं से भरा हुआ मेरा मन और दुःखों से भरे हुए मेरे जीवन को देखकर मेरे भाविकी मुझे एक ही शक्यता दिखाई देती है और वो है मेरी 'दुर्गति'। मृत्यु के बाद की गति का मुझे अंदाज नहीं । बल्कि लगातार संक्लेशग्रस्त मनने मेरे वर्तमान जीवन को भी दुर्गति जैसा ही बना रखा है। -२६
SR No.009506
Book TitleChahe to Par Karo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2005
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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