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________________ पाठकवर्ग के दिल और दिमाग पर पाप कर्मों के प्रति और घृणा पैदा करने में यह प्रकाशन अवश्य ही सफल होगा । चार गतिओं में भी नरक में अत्याधिक दुःख होते है तथा वह दुःख खुद आत्मा को ही सहन करना पड़ता है । हीं ? कीय दुःख है या नहीं ? ऐसी शंका व्यक्तिओं के मन में उत्पन्न हो सकती है। परंतु पुरी चित्रावली के पन्नों पर प्रकाशित शास्त्रों के प्रमाणो के अक्षरशः वाचन से यह शंका दूर होगी । रौद्र ध्यान आदि तीव्र अशुभ परिणाम जीव को नरकगति का अनुबंध कराता है। भयंकर पाप कर्म करने वाले पापी भी पश्चाताप, प्रायश्चित संयम आदि तप करले पाप से मुक्त होकर सद्गति पाता है। एक असत्य वचन से वसुराजा नरक में उत्पन्न हुआ । नरक के चार दरवाजे है- प्रथम रात्री भोजन, दुसरा परस्त्री गमन, तिसरा बोर आचार, चौथा अनंतकाय भक्षण । लोग रात्री भोजन करते है, शील और संयम विहिन है । मध, मंदीरा, मांस के भक्षण में तत्पर है, वे मरने के बाद महानरक में जाते है । यहाँ रात्रि भोजन के फल में विभिन्नता है । शास्त्रो में नारकी के लिए विस्तार से विवेचन है । श्री भगवती सूत्र, ' श्री प्रश्न व्याकरण, श्री जीवाभिगम सूत्र, श्री भवभावना आदि में नरक के बड़े बड़े वर्णन है । सूत्र ख्रिश्चन बाइबल में हेल नारकी का उल्लेख है । कुरान में जहन्नम - नरक के दुःख सहन करने का लिखा है । चार्वाक के सिवाय सब ने पाप के फल को माना है। और अति पाप से नरक दुःख भुगतना पड़ेगा ऐसा माना है । जीव हिंसा झूठ, चोरी, पापी, रौद्रध्यानी, परद्रोही, क्रूर और व्यभिचारी होता है वह भी नरकगति प्राप्त करता है । प्रमाद से आशक्त देव, मनुष्य और विद्याधर के भव में सुख भुगतने के बाद नरक में डर, डर, भय शब्दों के उच्चारण करते हुए जीव सीसा और तांबा रुप प्रवाही पीता है। (17) जो जीव आसक्त, दुष्ट और मूढ पापकर्म इस लोक में करता है वे पाप उसे अतिशय वेदना देनेवाले भयंकर नरक जाते है । भक्रखणे देवदव्वस्स, परत्थीगमणेण य । सतमं नरयं जंति सत्त - वाराउ गोयमा || भावार्थ : हे गौतम, देवद्रव्य का भक्षण और परस्त्री गमन से जीव सातवी नरक में सात बार जाते है। अणुत्तरेसु नरएस वेयणाओ अणुत्तरा । पमाए वट्टमाणेणं मए पत्ता अनंतसो || भावार्थ : विषय, कषाय आदि प्रमाद को वश होकर मैंने भयंकर नरको में भयंकर वेदना अनंतबार सहन की है । हे राजन ! चौदश अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा सूर्यक्रांति पर्व है । इन दिनों में तेल, स्त्री और मांस का भोगी यहाँ सूत्र का ही भोजन है ऐसी विष्ट मूत्र भोजन नामक नरक में जायेगा। (अन्य धर्म में बताया है ।) अक्वाई राठोड : वैध और परिवारजनों से त्यजा हुआ औषध से तंग, सोलह महारोग से युक्त राज्य, राष्ट, और अंतर में मुर्च्छित राज्य की कामना करनेवाला, प्रार्थना करनेवाल शरीर और मन से दुःखी ऐसा वह (२५०) साल का आयुष्य भोगने के बाद रत्नप्रभा नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नारकी रुप उत्पन्न हुआ । परलोक में नारक मेरु पर्वत की तरह सास्वत नहीं है । जो कोई पाप का आचरण करता है वह नारक बनता है । नारक मरने के बाद नारक तरीके से उत्पन्न होते नहीं है इसलिये वे दुसरे भव में नारक नहीं कह सकते हैं । जो जीव माता, पिता, गुरुदेव, आचार्य और पूज्यों का अनादर और अवहेलना करता है वे वैतरणी नदी में डूब जाता है। जो जीव पतिव्रता, सती, कुलीन, विनम्र ऐसी पत्निओं का द्वेष बुद्धि से त्याग करते है। वे अवश्य वैतरणी में गिरते है सज्जनों के हजारो गुण पर जो दोषोरोपण करता है । उनकी अवज्ञा करते है वे सब वैतरणी में पड़ते है । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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