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________________ रहा है वह हमारे विज्ञान का ही प्रक्षेप है। विज्ञान एक विशाल सागर के समान है. जिसमें अविराम गति से लहरें उठती हैं। तरंगायित विज्ञान में नाना रूप जगत् की प्रतीति होती है। योगाचार सम्प्रदाय भ्रांति को वासना के कारण विज्ञान के प्रक्षिप्त मानता है, इसलिए आत्मख्यातिवाद कहते हैं। इस मत के अनुसार विज्ञान के रूप में शुक्ति और उस पर अध्यस्त रजत दोनों सत्य हैं किन्तु बाह्य पदार्थ के रूप में वे दोनों असत्य हैं। अन्यथाख्यातिवाद (नैयायिक ख्यातिवाद) भ्रम विषयक नैयायिकों का सिद्धांत अन्यथाख्यातिवाद कहलाता है। भ्रांति की उत्पत्ति प्रस्तुत वस्तु और समझी हुई वस्तु का गलत संयोग है। "अन्या" का अर्थ है "अन्य प्रकार से" और "अन्य स्थान में | भ्रम में ये दोनों ही बातें होती हैं। प्रस्तुत वस्तु अन्य प्रकार से दिखाई देती है और दिखाई देने वाली वस्तु अन्य स्थान में विद्यमान न होती है। इसीलिये नैयायिकों के इस मत को अन्यथाख्याति का सिद्धान्त माना जाता है। उदयनाचार्य, गंगेश उपाध्याय आदि ने इसकी विशद् विवेचना प्रस्तुत की है। सदसख्यातिवाद (सांख्यख्यातिवाद) सांख्यदर्शन के अनुसार भ्रम एक अंश में सत् और दूसरे अंश में असत् हैं। इस प्रकार यह सत और असत का संयोग है। "यह रजत है' इस भ्रांत ज्ञान में "यह" शुक्ति का वाचक है और “वह" सत् है। "रजत' की प्रतीति असत् है क्योंकि वहां रजत नहीं है फिर भी रजत दिखाई देता है। परीक्षा करने पर रजत का बोध भी हो जाता, इसीलिए वह मिथ्या है। इस प्रकार भ्रम में सत् और असत् दोनों वस्तुएँ सम्मिलित होती हैं। दोनों का पृथक् ज्ञान नहीं हो पाता है। सत्ख्यातिवाद (रामानुजख्यातिवाद) प्राचीन सांख्य और प्रभाकर के मीमांसा दर्शन में भी इसी मत को स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार शुक्ति में रजत की प्रतीति भ्रांति नहीं है। वह आंशिक सत्य है। यदि पूर्ण सत्य ज्ञात हो तो भ्रांति नहीं हो सकती। आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य का ज्ञान भ्रम का निवारण है। सत्य का ज्ञान भ्रम का बोध नहीं करता, वरन् उसे पूर्णता प्रदान करता है। सभी ज्ञान यथार्थ होते हैं-“यथार्थ सर्वविज्ञानम्" भ्रम नाम का कोई ज्ञान नहीं है। रामनज के अनुसार सभी ज्ञान सत्य हैं, भले ही आंशिक सत्य हो। जीव आंशिक सत्य को ही जानता है और ईश्वर को ही पूर्ण ज्ञान रहता है इसलिये उन्हें भ्रम नहीं होता है। वे भ्रम और अध्यास से परे हैं। मनुष्य के लिए ही भ्रम का अस्तित्व है। अनिर्वचनीय ख्यातिवाद (शंकराचार्य के द्वारा प्रस्तुत ख्यातिवाद) अद्वैत-वेदान्त उपर्युक्त किसी सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं। इन सभी सिद्धान्तों का खण्डन किया है। उनका अपना मत अनिर्वचनीय ख्यातिवाद 68
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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