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________________ तो न शुक्ति ज्ञान कर्म के लिए प्रेरित करेगा क्योंकि वह लोभ उत्पन्न नहीं कर सकता और न उसके बाद होने वाला स्मति रूप रजत ज्ञान कर्म के लिए प्रेरित कर सकता है, क्योंकि वह स्मृति रूप प्रत्यक्ष रूप नहीं। तख्यातिवाद (मामांसकों का है। लगता है। उद्देश्य और दिशा वस्तुतः यह मत भट्टमीमांसकों का है। उनका मत है कि किसी-किसी समय मिथ्या विषय भी प्रत्यक्ष सा भासित होने लगता है। जब हम रस्सी में सर्प का प्रत्यक्ष करते हैं और कहते हैं कि "यह सर्प है" तो यहां उद्देश्य और विधेय दोनों यथार्थ हैं। जो रस्सी वर्तमान है, वह सांप की कोटि में ले जाती है। वस्तुतः सत्ता दोनों की ही हैं। भ्रम इस बात को लेकर होता है कि हम दो यथार्थ किन्तु पृथक वस्तुओं में उद्देश्य-विधेय का संबंध स्थापित कर देते हैं। भ्रम इसी संबंध या संसर्ग को लेकर होता है, न कि विषयों को लेकर जो वास्तविक पदार्थ है। ऐसे भ्रम के कारण लोग विपरीत आचरण करते हैं। इसे विपरीतख्यातिवाद इसीलिए कहा जाता है कि इसके कारण अकार्य में कार्यता का भान अथवा आभास होता है। कुमारिल भट्ट का मत वास्तव में नैयायिकों के भ्रम विषयक मत से मिलता-जुलता है। अतः इसकी समीक्षा भी नैयायिकों के भ्रम विषयक सिद्धान्त के समान ही समझनी चाहिए। असत्ख्यातिवाद (माध्यमिक) जिस वस्तु की भ्रांतप्रतीति होती है वह असत् है। अतः असत् वस्तु का सत् के समान भासित होना असत् ख्याति है। ज्ञाता विज्ञान और ज्ञेय बाह्य वस्तुएं दोनों शून्य होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि किसी वस्तु का बोध कैसे होता है। माध्यमिक उसकी व्याख्या संस्कार से करते हैं। हम अपने संस्कारों के कारण बाहर वस्तु न होने से भी देखते हैं। संस्कार पूर्व प्रत्यक्ष के कारण निर्मित होते हैं और वह पूर्व प्रत्यक्ष भी उसके पूर्व संस्कार के कारण था। इस प्रकार संस्कार और प्रत्यक्ष अन्योन्याश्रित है और दोनों ही निःस्वभाव और शून्य है। चद्रकीर्ति एक कारिका पर टीका करते हुए लिखते हैं कि द्रष्टा के अभाव में द्रष्टव्य और दर्शन भी नहीं है। अतः विज्ञान, स्पर्श, वेदना और तृष्णा चतुष्ट्य भी नहीं है।' अतः अनुभव जगत् अज्ञान जन्य प्रतीतियों से उत्पन्न भ्रम मात्र है। प्रभाचंद का आक्षेप भी कुछ इसी प्रकार है। आत्मख्यातिवाद बौद्धों के योगाचार सम्प्रदाय इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इनके दर्शन में क्षणिक विज्ञान मात्र की सत्ता स्वीकार की जाती है। इसके अतिरिक्त न कोई बाह्य पदार्थ है और न नित्य आत्म-तत्त्व। बाहर जो कुछ जगत् दिखाई दे 67
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
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