SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3. यदि कार्य पहले से ही उपादान कारण में स्थित है तो दोनों एक-दूसरे से भिन्न क्यों माने जाते हैं? 4. कार्य और कारण के रूप या आकार में तो अन्तर पाया जाता है। सुराही और मिट्टी के लोदे के रूप में निश्चय ही अन्तर है। यदि सुराही मिट्टी के लोदे में पहले से ही विद्यमान है तो फिर दोनों के आकारों में अन्तर क्यों है? यदि यह कहा जाय कि मिट्टी के लोदे में जो रूप नहीं है, वह सुराही में हो तो इसका अर्थ यह होगा कि शून्य से कुछ आरम्भ हुआ है। (Something has come out of nothing.) किन्तु ऐसा सोचना वैज्ञानिक नियम के विरूद्ध है। यह सर्वमान्य नियम (nothing) है। किन्तु ऐसा सोचना वैज्ञानिक नियम के विरूद्ध है। यह सर्वमान्य नियम है कि शून्य से शून्य की ही उत्पत्ति नहीं होती है, अर्थात् इससे कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता (Nothing comes out of nothing) है। उपर्युक्त तर्कों के आधार पर न्याय-वैशेषिक असत्कार्यवाद का सिद्धांत सिद्ध करते हैं। इसके अनुसार प्रत्येक घटना की उत्पत्ति नये सिरे से होती है। इसीलिए इसे आरम्भवाद भी कहा जाता है। अद्वैत वेदान्तियों ने भी सत्कार्यवाद का समर्थन किया है किन्तु इनका सत्कार्यवाद परिणामवादी न होकर विवर्तवादी है। इन्होंने सांख्य की तरह कार्य और कारण को भिन्न नहीं बल्कि एक ही माना है। आदि शंकराचार्य ने अपने वृद्धारण्यक-भाष्य में बतलाया है कि कार्य और इसके उपादान कारण में प्रत्यक्ष के आधार पर कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता है। सुराही और मिट्टी दोनों में किसी अन्तर का प्रत्यक्ष नहीं होता है। सांख्य की दृष्टि में विश्व का केवल उत्पत्ति-नाश, हीन पुरुष को छोड़कर बाकी सबका, मूल कारण है। जो कुछ भी भौतिक है, वह यानी भूत द्रव्य और शक्ति दोनों ही इसी से उत्पन्न हुए हैं। इसी से सभी विविधताओं से युक्त यह विश्व उद्भूत होता है। एम. हिरियन्ना का कहना है कि इसलिए यह सिद्धान्त परिणामवाद अर्थात परिवर्तन का सिद्धान्त कहलाता है। हिरियन्ना ने तो यहां तक बतलाया है कि दिक और काल तक प्रकृति के रूप माने गए हैं और इसलिए इनका स्वतन्त्र सत्ताओं के रूप में उससे पृथक् अस्तित्व नहीं है। सांख्य तत्त्वकौमुदी श्लोक 33वां और सांख्यप्रवचन भाष्य 2.12 में भी इस बात की सम्पुष्टि की है। यह एक विशेष रूप से ध्यान देने की बात है, क्योंकि यह दर्शन भूतद्रव्य को दिक् और काल में स्थित मानकर नहीं चलता, जैसा मानकर सामान्यतः अन्य दर्शन चले हैं और पाश्चात्य दर्शन भी प्रायः थोडे दिन पहले क जैसा मानता था। इस बात की सम्पुष्टि राम हिरियन्ना ने भारतीय दर्शन की रूपरेखा के पृष्ठ 270 में की है। भौतिकवादियों के साथ-साथ अन्य वस्तुवादियों ने भी दिक और काल में ही भूत द्रव्य को स्थित बतलाया है। इसके बजाय सांख्य और योग दर्शन ने मूल प्रकृति को ही इन दोनों का कारण माना है और इसी में इनका समावेश कर दिया है। प्रकृति के स्वरूप को अनुभव की सामान्य वस्तुओं के स्वरूप को अनुभव की सामान्य वस्तुओं के स्वरूप से अकेली तर्कना की सहायता से निगमित किया गया है। इन वस्तुओं अथवा पदार्थों का उपादान-कारण होने से प्रकृति में वे सब 126
SR No.009501
Book TitleGyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy