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________________ नदीसूत्र के अनुसार श्रुत के दो भेद बताए गये हैं । अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद हैं जो द्वादशांगी नाम से प्रसिद्ध है । अंग-आगम छोडकर बाकी के जो उपांग वगैरह हैं उनको अंगबाह्य I कहा जाता है । 1 जैन परम्परा के अनुसार 'पूर्व' नामक ग्रन्थ श्रुतज्ञान का अक्षयकोष है । पूर्वों की संख्या १४ बतायी गई है । ज्ञानी मुनियों के विशेषण पूर्वों के अध्ययन से सम्बन्धित दिखाई देते हैं । जैसे चतुर्दशपूर्वधारी, दशपूर्वधारी इ. । भ. महावीर की श्रुतराशि १४ पूर्व या दृष्टिवाद नाम से जानी जाती थी । लेकिन भ. महावीर के समय ही १४ पूर्वों के अतिरिक्त दृष्टिवाद का जो भाग था वह लुप्त हुआ था। भ. महावीर ने जो उपदेश दिये वह १४ पूर्वों के आधारपर ही दिये । ग्यारह गणधरों ने उनके उपदेश के आधार से आचारांग आदि ११ अंगों की रचना की । यद्यपि दृष्टिवाद अनुपलब्ध था तथापि परम्परा की दृष्टि से उन्होंने दृष्टिवाद को बारहवें क्रम पर रखा । इस प्रकार द्वादशांगी गणिपिटक बन गया । द्वादशांगी में आचारांग का स्थान पहला है । इसके बारे में दो मत हैं । एक मत के अनुसार आचारांग स्थापना क्रम की दृष्टि से पहला है लेकिन रचनाक्रम की दृष्टि से अन्तिम है । निर्युक्तिकार भद्रबाहु के अनुसार रचना और क्रम दोनों की दृष्टि से आचारांग ही प्रथम है । निर्युक्ति तथा भाष्य में आचारांग के बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके आधारपर हम कह सकते हैं कि आ. भद्रबाहु ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध की ('आयारचूला' की) रचना की और उसके पश्चात् दो श्रुतस्कन्धों की व्यवस्था की । मूलभूत प्रथम अंग का नाम आचारांग अथवा ब्रह्मचर्य अध्ययन है । निर्युक्ति में इसे नव-ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक कहा २
SR No.009489
Book TitleArddhmagadhi Aagama che Vividh Aayam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherFirodaya Prakashan
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other
File Size1 MB
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