SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *********** - (१५) जो गुरु पुण्यवान हो, त्यागीपने को प्राप्त हुआ हो, चारित्र सहित हो, - वचन से जिसकी महिमा कही न जा सके और युगप्रधान हो-ऐसे गुरु की ही मुझे शरण है।।१३६ ।। (१६) आजकल एक श्रद्धान करना ही कठिन है तो जीवन पर्यन्त चारित्र धारण करना तो कठिन है ही सो जो चारित्र के धारी हैं वे ही गुरु पूज्य हैं-ऐसा गाथा का भाव जानना ।।।१३९ ।। (१७) एक युगप्रधान जो आचार्य है उसे मध्यस्थ मन से पक्षपात रहित होकर और शास्त्र दृष्टि से लोकप्रवाह को त्यागकर भली प्रकार परीक्षा करके निश्चय करना योग्य है। हमारे तो ये ही गुरु हैं, हमको गुण-दोष विचारने से क्या प्रयोजन है ऐसा पक्षपात नहीं करना चाहिये ।।१४०।। (१८) जगत में स्वर्ण-रत्नादि वस्तुओं का विस्तार तो सर्व ही सुलभ है परन्तु जो सुमार्ग मे रत हैं और जिनमार्ग में यथार्थतया प्रवर्तते हैं ऐसे गुरुजनों का मिलाप निश्चय से नित्य ही दुर्लभ है ।।१४३।। (१९) जैनी अपरिग्रही निग्रंथ साधु को गुरु मानते हैं यह ही योग्य है, परिग्रही सग्रन्थ को गुरु मानना योग्य नहीं ।।१४५।। (२०) जो बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह रहित वीतराग हैं वे ही गुरु हैं ।।१५२ ।। (२१) सुख का मूल विवेक है सो विवेक श्रीगुरुओं के प्रसाद से होता है और इस काल में श्रीगुरु का निमित्त मिलना कठिन है अतः सुख कैसे हो ! || १५८।। (२२) मुझे गुरु की सामग्री का सुयोग प्राप्त होकर सम्यक्त्व सुलभ हो-ऐसी प्रभु से प्रार्थना है।।१६० ।। (२३) प्रचुर गुणवान और निर्मल बुद्धि के धारक महान आचार्य मंगलस्वरूप हैं और सिद्धान्त के पाठ करने में अत्यंत प्रवीण उपाध्याय एवं निज सिद्ध रूप का साधन करने वाले साधुजन परम मंगल को करने वाले हैं, मन-वचन-काय से लौ लगाकर भागचंद जी उनके चरणों की नित्य वंदना करते हैं | |अन्तिम छप्पय १।। ************* *** ***** *** ********** 31
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy